अजय सिंह चौहान || भारत की उत्तर दिशा में स्थित पहाड़ी राज्य उत्तराखंड, कई प्रकार के ऐतिहासिक, प्रशासनिक और भौगोलिक कारणों के चलते क्षेत्रिय स्तर पर मुख्य रूप से दो भागों में बंटा हुआ है जिसमें से एक है ‘कुमाऊँ’ और दूसरा है ‘गढ़वाल’। इस समय उत्तराखंड में कुल 13 जिले हैं जिनमें से कुमाऊँ में अल्मोड़ा, चम्पावत, बागेश्वर, नैनीताल, पिथौरागढ़ और उधम सिंह नगर के नाम से कुल 6 जिले आते हैं। इन 6 जिलों या इन क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों को ‘‘कुमाऊँनी’’ के तौर पर पहचाना जाता है और यहां बोले जाने वाली भाषा को भी कुमाऊँनी कहा जाता है।
जबकि उत्तराखंड का दूसरा क्षेत्र जो ‘गढ़वाल’ के नाम से पहचाना जाता है उसके बारे में ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि इसका यह ‘गढ़वाल’ नाम परमार शासकों की देन है। इस ‘गढ़वाल’ अंचल या गढ़वाल मंडल में चमोली, देहरादून, हरिद्वार, पौड़ी गढ़वाल, रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल और उत्तरकाशी नाम से कुल 7 जिले आते हैं। हालांकि, आज यहां हम सिर्फ कुमाऊँ की पौराणिकता और प्राचीनता के बारे में ही बात करने वाले हैं।
तो सबसे पहले बात करते हैं भारत की उत्तर दिशा में स्थित पहाड़ी राज्य यानी देवभूमि उत्तराखंड के ‘‘कुमाऊँ’’ क्षेत्र के नाम की उत्पत्ति को लेकर। तो इसके कुमाऊँ शब्द की उत्पत्ति को लेकर कुछ लोग मानते हैं कि यह संपूर्ण क्षेत्र कूर्माचल, यानी भगवान कूर्म का अंचल या क्षेत्र है इसलिए इसे कूर्माचल कहा गया और बाद में इसका नाम कुमाऊँ हो गया। जबकि कुछ लोग ये भी मानते हैं कि कूर्मा से ही यह नाम कुमू बन गया और फिर कुमू से कुमाऊँ में बदल गया।
आज भी पौराणिक और ऐतिहासिक दस्तावेजों में इसे कूर्मांचल के नाम से पहचाना जाता है लेकिन, भाषा और ऊच्चारण की सरलता के चलते इसे अब कुमाऊं के नाम से प्रसिद्धि मिली हुई है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यहां के कत्यूरी वंश के शासकों के पूर्वज जो कि, अयोध्या से संबंध रखते थे इसलिए कत्यूरियों ने ही अपने राजवंश को यहां कुर्मांचल कहना प्रारंभ किया था जो वर्तमान में कुमाऊँ बन गया।
आधुनिक इतिहास बताता है कि मुगलकाल में लोग इसे कुमायूं कहने लगे थे और फिर यही शब्द प्रचलीत हो गया और अब कुमाऊँ के रूप में बदल गया है। जबकि कुमाऊँ शब्द की उत्पत्ति को लेकर जो सबसे अधिक प्रामाणिक और पौराणिक तथा प्रचलित किंवदन्तियां और तथ्य मिलते हैं उनके अनुसार कहा जाता है कि ‘‘कूर्मअचल’’ या ‘‘कुमाऊँ’’ शब्द की उत्पत्ति चंपावत के ‘‘क्रांतेश्वर’’ या ‘‘कानदेव’’ पर्वत से ही हुई थी।
पिथौरागढ़ जिले की चम्पावत तहसील में भगवान विष्णु ने ‘‘कूर्म’’ यानी कछुए का रूप धारण कर यहां ‘कानदेव’ नामक एक पर्वत पर करीब तीन हजार वर्षों तक तपस्या की थी। लगातार तीन हजार वर्षों तक एक ही स्थान पर खड़े रहने के कारण भगवान कूर्म के चरणों के चिन्ह पत्थर पर अंकित हो गये थे। इस पर्वत को ‘‘क्रांतेश्वर पर्वत’’ के नाम से भी पहचाना जाता है। यहां एक बहुत ही सुंदर और भव्य मंदिर भी बना हुआ है, और इसी मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के ‘‘कूर्म’’ यानी कछुए के अवतार के पदचिन्ह आज भी मौजूद हैं।
हालांकि, यहां के कुछ ऐतिहासिक शिलालेखों, ताम्रपत्रों और प्राचीन ग्रन्थों से पता चलता है कि प्राचीन दौर का यह कूर्माचल नाम, और आज का इसका यह कुमाऊँ नाम, दोनों ही शब्द बहुत बाद के हैं। क्योंकि यहां कुछ ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं जिसके अनुसार सम्राट समुद्रगुप्त के द्वारा इस प्रान्त को ‘‘कार्तिकेयपुर’’ कहा गया है।
अल्मोड़ा जिले के अंतर्गत कुमाऊं व गढ़वाल की सीमा के करीब स्थित, तालेश्वर गांव से प्राप्त पांचवीं तथा छठी शताब्दी के ताम्रपत्रों में आधुनिक कुमाऊँ के दो नामों का उल्लेख मिलता है जिसमें से एक ‘कार्तिकेयपुर’ और दूसरा ‘ब्रह्मपुर’ है। जबकि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इसे ‘ब्रह्मपुर’ शब्द से सम्बोधित किया है।
‘ब्रह्मपुर’ के विषय में डाॅ. ए.बी.एल. अवस्थी ने “स्टडीज इन स्कन्द पुराण भाग-1” नाम की अपनी पुस्तक में लिखा है कि पौराणिक युग में आज के इन कुमाऊँ और गढ़वाल नामक दोनों ही क्षेत्रों को सम्मिलित रूप से ‘ब्रह्मपुर’ पुकारा जाता था।
मध्य हिमालय क्षेत्र की अपनी दूर्गम भौगोलिक स्थितियों के कारण ही ‘‘कुमाऊँ’’ और ‘गढ़वाल’ नाम से दो अंचलों में बंटा हुआ है। जबकि एक तरह से नंदा देवी पर्वत को इन दोनों क्षेत्रों यानी खण्डों की विभाजन रेखा माना जाता है। लेकिन, पौराणिक युग में यह ‘ब्रह्मपुर’ के नाम से एक ही क्षेत्र हुआ करता था।
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भाषा की बात करें तो अखण्ड भारत के अन्य क्षेत्रों से आने-जाने वाले लोगों के साथ संवाद के तौर पर यहां भी आधिकारिक रूप से संस्कृत का ही चलन था। लेकिन, क्योंकि यहां आम बोलचाल में स्थानीय कुमाऊँनी भाषा को ही महत्त्व दिया जाता था इसलिए जैसे-जैसे संस्कृत का प्रभाव संपूर्ण देश में कम होता गया वैसे-वैसे यहां कुमाऊँनी भाषा का प्रचलन बढ़ गया।
प्राचीन ग्रंथों यानी पौराणिक ग्रंथों में हरिद्वार से हिमालय तक के इस विस्तृत क्षेत्र को केदारखंड और नंदा देवी पर्वत से कालागिरी तक के क्षेत्र को ‘मानस खंड’ कहा गया है। जबकि यही मानस खंड ‘मध्य हिमालय क्षेत्र’ कहलाता है। अन्य कई पौराणिक ग्रंथों और महाकाव्यों में भी इस मध्य हिमालय क्षेत्र का वर्णन विस्तार से दिया गया है।
इस संपूर्ण क्षेत्र को ‘‘मानसखण्ड’’ कहे जाने के विषय में तथ्य और प्रमाण बताते हैं कि प्रागैतिहासिक काल में इस मध्य हिमालय क्षेत्र में मानव जाति निवास करती थी, और इन तथ्यों की पुष्टि यहां के विभिन्न स्थानों से प्राप्त गुफा, शैल चित्र, कंकाल और धातु उपकरणों से हो चुकी है।
इस क्षेत्र की ग्वारखा गुफा, लाखू गुफा, फलसीमा, हुडली, और मलारी गाँव में कई तरह के पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनसे प्रमाणित होता है कि उस दौर के लोग ऊंचे पर्वतों में ही रहते थे और बाद में वे यहां से मैदानी क्षेत्रों गये।
जहां एक ओर हमारे कई प्राचीन और पौराणिक ग्रंथों में हरिद्वार से हिमालय तक के इस विस्तृत मध्य हिमालय क्षेत्र को मानस खंड कहा गया है, वहीं, स्कन्द पुराण में उत्तराखण्ड का यही कुमाऊँ क्षेत्र न सिर्फ साधू, संतों और संन्यासियों के लिए, बल्कि देवों के लिए भी सबसे श्रेष्ठ तपोभूमि और स्वर्गभूमि मानी जाती है, और इसका साक्षात उदाहरण आज भी हमारे सामने है जिसमें से कुमाऊं क्षेत्र के अल्मोड़ा जिले में स्थित भगवान शिव के विश्व प्रसिद्ध मंदिर ‘जागेश्वर धाम’ की पूजा जागृत शिव धाम के रूप में यूगों-यूगों से होती आ रही है।
क्योंकि भगवान शिव यहां स्वयं आज भी ध्यान साधना किया करते हैं इसीलिए इसे ‘जागेश्वर धाम’ धाम के नाम से पहचाना जाता है और इसकी इसी खासियत के लिए इसे जागृत शिव मंदिर के तौर पर पूजा जाता है। इसीलिए उत्तराखण्ड का कुमाऊं अनादिकाल से न सिर्फ सनातन धर्म और अध्यात्म के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि कुछ विशेष सिद्धियां और शक्तियां प्राप्त संतों और योगियों की प्रमुख ध्यान तथा अध्यात्म स्थली भी है।
इसके अलावा देवभूमि उत्तराखंड में कई ऐसे प्राचीन धार्मिक स्थल हैं जिनका वर्णन हमारे पुराणों में विस्तार से मिलता है। इन स्थानों में सबसे प्रिय नाम भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ धाम और सनातन धर्म के चार प्रमुख धामों में से एक भगवान बद्रीनाथ धाम सहित अन्य कई प्रसिद्ध और सिद्ध शक्तिपीठ स्थान भी मौजूद हैं। इन सबसे अलग भारत की सबसे पवित्र नदियों में से कुछ प्रमुख नदियां- जैसे गंगा और यमुना के उद्गम स्थल भी इसी उत्तराखण्ड की दुर्गम पहाड़ियों में हैं।
सनातन धर्म तथा अत्ध्यात्म के लिए विशेष महत्व रखने वाले कुछ खास देवस्थान तथा तपोभूमि ही नहीं बल्कि युगों-युगों से हमारे देवों सहीत कई महापुरुषों, सिद्धि प्राप्त साधू, संतों और संन्यासियों की भी तपोभूमि और स्वर्गभूमि है उत्तराखण्ड।