भारत की प्राचीन संस्कृति में एक दूसरे प्राणी के प्रति कदम-कदम पर प्रेम, करुणा एवं दया का भाव प्रदर्शित किया गया है। मंदिरों में जब पूजा या आरती होती है तो अंत में घोष किया जाता है कि प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, गंगा मैया की जय हो, सभी देवी-देवताओं की, सभी तीर्थों की जय हो, सभी ऋषि-मुनियों की जय हो आदि। इस तरह का जो घोष किया जाता है उसका अपना एक मकसद होता है। ये घोष एक संकल्प हैं। यह सब दोहराने की परंपरा यूं ही विकसित नहीं हुई है। इसके माध्यम से भगवान महावीर के उस सिद्धांत को जीवंत किया जाता है कि ‘अहिंसा परमो धर्मः’ एवं ‘जियो और जीने दो।’ वास्तव में यदि इन दोनों सिद्धांतों या यूं कहें कि उपदेशों का मूल्यांकन, विश्लेषण एवं अध्ययन किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आता है कि भगवान महावीर के इन्हीं दोनों उपदेशों में सुख-शांति एवं अमन-चैन का सार निहित है। ये दोनों उपदेश कोई मामूली उपदेश नहीं हैं। ये दोनों ही उपदेश समस्त सृष्टि में इंसानियत एवं मानता की रक्षा करने वाले हैं।
वैसे भी सृष्टि का विश्लेषण किया जाये तो कहा जाता है कि अपने कर्मों के मुताबिक जीव 84 लाख योनियों में विचरण करता रहता है। ये 84 लाख योनियां मानव से लेकर, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, पेड़-पौधे, वनस्पतियां या अन्य किसी भी प्रकार के जीव के रूप में हो सकती हैं। यह सब किसी की कही या सुनी-सुनाई नहीं हैं बल्कि हमारे वेदों-पुराणों एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों में वर्णित हैं। किसी भी जीव को 84 लाख योनियों में विचरण करने या यूं कहें कि भटकने से मुक्ति मिल जाये, अपने-अपने कर्मों के अनुसार। इसी बात को ध्यान में रखकर प्राचीन भारतीय सभ्यता-संस्कृति में मोक्ष की कल्पना की गई। मोक्ष का सीधा सा आशय यह है कि 84 लाख योनियों में विचरण से मुक्ति। शायद इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर जैन धर्म में कदम-कदम पर त्याग को प्राथमिकता दी गई है और कहा गया है कि मानव को अपनी आवश्यकताएं कम से कम यानी न्यूनतम रखनी चाहिए, जिससे एक ही जन्म में मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सके क्योंकि मोक्ष का रास्ता केवल और केवल मानव जीवन के माध्यम से होकर गुजरता है किसी अन्य योनि से नहीं। इस दृष्टि से देखा जाये तो जैन मुनियों की जीवनशैली एवं उनका कठिन जीवन दुनिया के लिए एक मिशाल है। यदि इसी रास्ते पर विश्व चलने लगे तो निश्चित रूप से दैवीय आपदाओं को कम किया जा सकता है और विश्व को सुख-शांति एवं अमन-चैन के रास्ते पर ले जाया जा सकता है।
सृष्टि रचयिता द्वारा रचित 84 लाख योनियों यानी प्राणियों में मानव को ही सबसे अधिक समझदार प्राणी माना गया है। ऐसे में मानव की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह सभी प्राणियों का नेतृत्व करे। आज के समय में मानव समाज के सामने भले ही कोई प्रकृति के अनुरूप, इंसानियत-मानवता से भरपूर, सत्य, अहिंसा एवं अन्य सद्गुणों पर आधारित जीवनशैली न दिखाई दे रही हो किंतु अतीत में ऐसा नहीं था। अतीत में हमारे ऋषि-मुनियों, विद्वानों एवं प्रकृति प्रेमियों के द्वारा सर्वदृष्टि से एक उत्तम जीवनशैली की परंपरा विकसित की गई थी, जिसके अंतर्गत सभी लोग एक दूसरे के साथ संबद्ध थे। कोई किसी का शोषण एवं दोहन नहीं करता था और न ही कोई एक दूसरे को सताता था। संस्कारयुक्त जीवनशैली की शिक्षा बच्चों को बचपन से ही गुरुकुलों में गुरुओं के माध्यम से दी जाती थी।
किसी भी बच्चे को बचपन से जैसी शिक्षा मिलती थी, वैसा ही उसका आचरण विकसित होता जाता है। बच्चों के बारे में तो वैसे भी एक आम बात कही जाती है कि बच्चे बताने से अधिक देखकर सीखते हैं। बचपन से ही बच्चों के मन में सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के प्रति मानवता, करुणा, परस्पर प्रेम एवं सामंजस्य का भाव पैदा होता था। एक प्राणी दूसरे प्राणी के साथ करुणा भाव का प्रदर्शन करने लगे तो सभी समस्याओं का समाधान स्वतः हो जायेगा। आज यह सभी को जानने की आवश्यकता है कि सृष्टि द्वारा रचित जो भी रचना है यानी 84 लाख योनियों में विचरण करने वाला कोई भी जीव ऐसा नहीं है जो एकदम निरर्थक यानी बेकार है। कहने का आशय यह है कि सभी जीवों की किसी न किसी रूप में उपयोगिता है। यह बात अलग है कि उसके बारे में हमें जानकारी नहीं है।
आज दुनिया के कई देश अपने यहां ऐसे स्कूलों की स्थापना कर रहे हैं जिसमें पढ़कर बच्चे प्रकृति एवं प्रकृति के प्राणियों के बारे में जान एवं समझ सकें। इस संबंध में कहा जा सकता है कि जिस गौरवमयी विरासत को हम लोग छोड़ रहे हैं उसे वे अपना रहे हैं। कुल मिलाकर कहने का भाव यही है कि मानव का यदि अन्य प्राणियों के प्रति आकर्षण बढ़ जाये तो तमाम समस्याओं का समधान हो जायेगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि जब एक पेड़ आंधी से गिर जाये तो लोग दुखी हों, कोई नदी, तालाब, कुंआ सूखने लगे तो लोग चिंतित हों, सड़क पर कोई पशु-पक्षी घायल तड़पता मिले तो लोगों में उसके प्रति दया का भाव हो।
जैन धर्म में श्वेतांबर ऋषि-मुनि मुंह पर कपड़ा बांध कर इसीलिए चलते हैं कि कोई सूक्ष्म जीव उनके नाक एवं मुंह में पहुंचकर अपनी जीवन लीला न समाप्त कर ले। जिस समय भारत को विश्व गुरु कहा जाता था, उस समय कुछ इसी प्रकार का माहौल था। मई महीने की गर्मी से पूरे देश में लोग हैरान एवं परेशान हैं किंतु उनकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि यह सब उनकी कमियों की वजह से हो रहा है। अतीत में जब एक पेड़ काटने की जरूरत पड़ती थी तो उसके बदले कई पेड़ लगाये जाते थे। तमाम लोग आम, नीम, पीपल, पाकड़, महुआ एवं बरगद जैसे पेड़ इसलिए लगाते थे कि उनके न रहने पर जब उसके नीचे या उसकी छाया में बैठकर मानव पशु-पक्षी एवं जीव जंतु विश्राम करेंगे तो उसका पुण्य स्वयं उनके साथ-साथ उनके पूरे परिवार एवं कुल-खानदान को मिलेगा।
आज शादी-ब्याह एवं किसी पारिवारिक कार्यक्रम में चाहे जितने भी टेंट, एसी, कूलर एवं पंखे लगा दिये जायें किंतु उस बरगद के पेड़ के मुकाबले नहीं टिक सकते जहां प्रकृति की छांव का आनंद मिलता है। बिजली रहे या न रहे, पावर कम आये या अधिक इससे बरगद के पेड़ को कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है किंतु जरा इस बात की कल्पना कीजिए कि यदि बिजली चली जाये तो टेंट, कूलर, एसी और पंखा का क्या होगा? शायद इसीलिए कहा गया है कि-
‘असलियत छुप नहीं सकती, बनावट के वसूलों से। खुशबू आ नहीं सकती, कागज के फूलों से।
हमारी अतीत की जो धरोहरें हैं, उससे आज के बच्चों एवं युवा पीढ़ी को अवगत कराने की जरूरत है। वैसे तो अवगत सभी को होना चाहिए। अतीत में किसी भी गांव में बच्चे से लेकर बूढ़े तक को यह पता होता था कि किस कुएं का पानी कितना ठंडा, कितना मीठा एवं कितना खारा है। हर गांव में जानवरों को नहाने एवं पानी पीने के लिए तालाब होते थे। लोग आपस में वहां मिलते थे। इसी बहाने लोगों में भाई-चारा एवं समरसता का भी भाव पैदा होता था। गाय-भैंस का कोई नवजात बच्चा मर जाता था तो ऐसा वातावरण उत्पन्न हो जाता था जैसे परिवर का कोई सदस्य चला गया हो। गाय-भैंस के नवजात बच्चे की देखभाल ठीक वैसे ही की जाती थी, जैसे अपने परिवार के बच्चों की। कोई भी व्यक्ति यदि अपने पशुओं की देखभाल ठीक से नहीं कर पाता था तो उसको समझाने के लिए अन्य लोग जाते थे और कहते थे कि यदि पशुओं की देखभाल नहीं कर पा रहे हो तो मत पालो, क्योंकि इससे कुल-खानदान पर पाप चढ़ता है।
यहां पर मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरा यह कहने का आशय बिल्कुल भी नहीं है कि अतीत में मांसाहारी एवं हिंसक लोग नहीं थे, किंतु उस समय के समाज की यदि व्याख्या की जाये तो अधिकांश लोग जंगलों में रहते थे। उसमें कुछ लोग राक्षसी प्रवृत्ति के थे। अपने पेट की ज्वाला को शांत करने के लिए कुछ भी खा लेते थे किंतु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऐसे लोग जो कुछ भी करते थे, अज्ञानतावश करते थे किंतु आज का मानव तो सब कुछ जानते हुए भी अज्ञानी बना हुआ है। सब कुछ जानते हुए भी अज्ञानी बने रहना सबसे बड़ा पाप कहा जा सकता है। अतीत में जैसे-जैसे जागरूकता आती गई, वैसे-वैसे अराजक गतिविधियां कम होती गईं, लोग प्रकृति के निकट आते गये।
आज के बच्चों एवं युवा पीढ़ी को ठीक से यह पता चलना चाहिए कि हम इतनी गर्मी क्यों सहन कर रहे हैं या इतनी अधिक प्राकृतिक आपदाओं के शिकार क्यों हो रहे हैं? पेड़-पौधों एवं पशु-पक्षियों की समझदारी के संबंध में यदि बात की जाये तो सीता जी के हरण के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने प्रकृति के सभी प्राणियों से पूछा था कि-
हे खग, मृग हे मधुकर श्रेणी। तुम देखी सीता मृगनैनी।
यानी उस समय प्रभु श्रीराम को प्रकृति के सभी जीवों से इतनी उम्मीद थी कि वे सीता जी की जानकारी दे सकेंगे किंतु आज का मानव लैपटाप पर बैठकर सिर्फ अपने आप को ही सबसे चतुर समझता है। लैपटाप, गूगल, सेटेलाईटों, वैज्ञानिकों के माध्यम से आज जो जानकारी मिल रही है उससे अधिक जानकारियां अतीत में पशु-पक्षियों एवं प्रकृति से मिल जाती थीं। आज की घड़ी की बैटरी यदि डाउन हो जाये तो समय की जानकारी गलत हो जाती है किंतु अतीत में समय की जानकारी के लिए जिन माध्यमों का प्रयोग होता था, उससे गलतियां नहीं होती थीं, आज के मानव के पास ताकत आ रही है तो वह उसका प्रदर्शन कर रहा है किंतु अतीत का मानव ताकत आने पर विनम्र होता जाता था और समाज कल्याण के लिए काम करता था। अतीत में ताकत पाकर जो अनुचित कार्य करता था, उसे राक्षसों की श्रेणी में डाल दिया जाता था यानी उस समय जो जैसा था उसी तरह की श्रेणी में था। कहने का आशय यह है कि किसी भी प्रकार की भ्रम की स्थिति नहीं थी।
आज का मानव ताकत के लिए मांस खाता है, क्या शाकाहार में ऐसी खाद्य सामग्री नहीं है, जिससे ताकत प्राप्त की जा सके। सतयुग से लेकर द्वापर, यहां तक कि कलयुग तक एक से बढ़कर एक योद्धा हुए, क्या वे मांसाहारी थे? कदापि नहीं। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि जिस दिन मानव सृष्टि के सभी प्राणियों की रक्षा करने लगेगा, सभी प्राणियों को एक दूसरे का पूरक मानने लगेगा, प्रकृति को ही अपने जीवन के लिए सब कुछ समझने लगेगा उस दिन समस्त समस्याओं का समाधान हो जायेगा।
यहां पर यह बताना भी मैं अपना फर्ज समझता हूं कि सृष्टि के लिए प्राणियों से मानव की विमुखता घातक क्यों है? जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सृष्टि पंच तत्वों- जल, वायु, अग्नि, आकाश एवं पृथ्वी से मिल कर बनी है और प्राणियों की ताकत के बलबूते पर कत्ल या हत्याएं इस सृष्टि के पांचों तत्वों को प्रभावित करती हैं, जैसे मांस को प्राप्त करने में और उसको पकाने में कितना अधिक जल लगता है यह शोधकर्ताओं ने चिंता का विषय बताया है जिससे पीने योग्य जल की उपलब्धता छिन्न-भिन्न हो जाती है। इसी प्रकार जैसा हमने ऊपर कहा कि प्राणियों से प्राप्त मांस को निकालने, पकाने और पचाने में जितनी अग्नि का प्रयोग होता है और उससे होने वाले कार्बन गैस इत्यादि के उत्सर्जन से न केवल आकाश तत्व का ओजोन परत, वायु की गुणवत्ता प्रभावित होते हैं और अग्नि की खपत अप्रत्याशित होती है जिसको विज्ञान भी आज सत्यापित कर चुका है।
अगर हम सृष्टि के पृथ्वी तत्व की बात करते हैं तो शोधकर्ताओं ने यहां तक शोध कर दिया है कि ताकत के बल पर जिन प्राणियों का कत्ल, हत्याएं की जाती हैं उनसे निकलने वाली चीत्कारों के माध्यम से जो तरंगें वातावरण में फैलती हैं, वह छोटे-बड़े भूकंपों की धरती में उलट-पुलट करने की क्षमताएं पैदा करती हैं इसलिए प्राचीन काल से ही हमारे संस्कारों और संस्कृति में प्राणियों से प्रेम, करुणा, दया के साथ-साथ समान रूप से जीने का सभी को अधिकार जैसे विचारों से लबालब किया हुआ है।
वास्तव में प्रकृति ने मानव शरीर की रचना मात्र शाकाहार की दृष्टि से की है। मानव शरीर के लिए मांस किसी भी रूप में उपयुक्त नहीं है। अतीत में हमारे समाज में जितने पेड़ होते थे, उनकी परिवार के प्रत्येक सदस्य की तरह अलग-अलग पहचान थी। उदाहरण के तौर पर आम के ही पेड़ों को लिया जा सकता है। किसी आम के पेड़ का फल मीठा होता था तो किसी का खट्टा तो किसी का स्वाद और किसी तरह का होता था। कहने का अशय यह है कि हर पेड़ की अपनी पहचान होती आंधी आने पर किसी पेड़ की कोई डाल टूट कर गिर जाती थी तो लोग बेहद दुखी होते थे। आमतौर पर उस समय घर-मकान बनाने से लेकर अन्य किसी भी काम में अमूमन सूखी लकड़ियों का प्रयोग होता था। किसी अपातकाल में यदि हरा पेड़ काटना पड़ता था तो उसकी किसी न किसी रूप में भरपाई होती थी।
आज के बच्चों, युवा पीढ़ी या यूं कहें कि सभी लोगों में यदि यह भावना पैदा हो जाये कि सभी कुएं, तालाब, पोखर, नदियों या पानी के अन्य स्रोतों का संरक्षण-संवर्धन करेंगे तो क्या किसी भी रूप में पानी की समस्या उत्पन्न हो सकती है? यदि सभी जीव-जंतुओं, वनस्पतियों एवं पेड़ों को प्रकृति की अनमोल धरोहर मानकर रक्षा होने लगे तो क्या प्रकृति में असंतुलन पैदा हो सकता है। घर के बड़े-बुजुर्गों, दादा-दादी, नाना-नानी एवं अन्य सगे-संबंधियों को अपना मानकर संयुक्त परिवार की प्रणाली को आगे बढ़ाया जाये तो क्या कोई अपने आपको अकेला या बेसहारा महसूस करेगा, जो जानवर अब दूध नहीं दे रहे हैं या किसी काम के लायक नहीं हैं, यदि उन्हें अपने परिवार के बुजुर्गों की तरह मानकर यह भाव लाया जाये कि हमारे परिवार के पालन-पोषण में किसी समय इनका भी अमूल्य योगदान रहा है तो क्या वे कसाई के यहां हलाल होने के लिए पहुंच पायेंगे? यदि हमारे आस-पास परिवार के लोग, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी एवं स्वस्थ वातावरण रहेगा तो क्या हम डिप्रेशन का शिकार होंगे या कठिन से कठिन समय में हमारे पास निगेटिव ताकतें फटक सकती हैं।
इस प्रकार यदि तमाम छोटी-छोटी बातों का ध्यान दिया जाये तो क्या किसी प्रकार की समस्या आ सकती है? इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि हमारा अतीत क्या और कैसा रहा है, उससे जन्म से ही अपने बच्चों को अवगत कराया जाये और उनके मन में यह भावना विकसित की जाये कि हमारी जैसी सभ्यता-संस्कृति पूरे विश्व में कहीं की नहीं है। पूरी दुनिया में अपने आप को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए हमारा अतीत ही काफी है। हमें और किसी से ज्ञान लेने के बजाय अपने ही ज्ञान-विज्ञान पर आश्रित रहना ज्यादा बेहतर होगा, क्योंकि हमने यह अच्छी तरह देख लिया है कि किसी दूसरे के बताये रास्ते पर चलकर सिर्फ विनाश का ही मार्ग प्रशस्त होता है, इसलिए उस ज्ञान से जितनी जल्दी मुक्ति ले ली जाये, उतना ही अच्छा होगा। आज नहीं तो कल हमें अपने अतीत पर गर्व करके आगे बढ़ना ही होगा। हमें क्या, पूरी दुनिया को इसी मार्ग पर चलने के लिए विवश होना पड़ेगा। वास्तव में अंतिम सत्य है भी यही।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव, भा.ज.पा.)