चीनी मछलियां विेशेषकर सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प तथा कानन कार्प, भारतीय नदियों में अपने वर्चस्व का आतंक फैलाकर, भारत की देशी मछलियों को खत्म करती जा रही हैं। चीन ने बड़ी चालाकी के साथ करीब तीन दशक पूर्व भारतीय वैज्ञानिकों को ये मछलियां चीन प्रवास के दौरान तालाबों में पालने के लिए भेंट की थी जो अब तालाबों से निकलकर बाढ़ के द्वारा प्रायः देश की सभी नदियों में पहुंच, अपनी जनसंख्या बढ़ाकर और भारतीय मछलियों को अपना ग्रास बनाकर खत्म कर रही हंै। इसके साथ ही गंगा, जमुना सहित देश की अन्य नदियों में, समुद्र के खतरनाक परजीवी रास्टेल एस्कटिक तथा अन्य घातक रसायनों के काफी अंदर तक प्रवेश से भी मछलियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है, जिस पर मौजूदा समय में गंभीरता से विचार करना अति आवश्यक है।
भारत की नदियों में चीनी मछली कामन कार्प ने अपनी प्रजनन क्षमता के कारण देशी मछली रोहू, कतला और नयन को पीछे छोड़कर, भारतीय नदियों पर एक तरह से कब्जा कर रखा है। करीब तीस साल पहले वैज्ञानिकों की एक गल्ती की वजह से इन मछलियों ने बाढ़ आदि के जरिये पूरे देश की नदियों में अपनी आमद की दस्तक तो दी ही है, ये देशी मछलियों को चटकर उनकी नस्ल को खत्म कर रही हैं, और अपनी संख्या निरंतर बढ़ा रही हैं। विदेशी मछलियों के आक्रमण से भारतीय मछलियां त्राहिमाम कर रही हैं। चीनी मछली कामन कार्प की विभिन्न नस्लें देश की लगभग सभी नदियों पर काबिज हो गई हैं। बाजार में भी, इन्हें रोहू के नाम पर धड़ल्ले से बेचा जा रहा है।
केंद्रीय मुक्त शिक्षा संस्थान महाराष्ट्र के निदेशक तथा वैज्ञानिकों को चीन सरकार ने तीन दशक पूर्व आमंत्रित किया था। आमंत्रण पर पहुंचे वैज्ञानिकों को चीन ने तालाब में पालने के लिए सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प तथा कामन कार्प प्रजाति की मछलियों के बीज दिए थे। इस नस्ल को चीन ने बड़ी चालाकी से भारतीय वैज्ञानिकों के हाथ भेजा था।
भारतीय वैज्ञानिक मछलियों को पालने के लिए ले तो आए लेकिन शायद वे यह नहीं समझ पाए कि यही मछलियां नदियों में पहंुचकर भारतीय प्रजाति को नुकसान पहुंचाएंगी। जो पहले कुछ तालाबों में पालने के लिए डाली गईं और अब उन मछलियों ने तालाबों से पहले कुछ नदियों और फिर बाढ़ आदि के माध्यम से देश के सभी नदियों पर कब्जा जमा लिया है। नतीजा आज सामने है, क्योंकि चीन को पता था कि भारत के मत्स्य वैज्ञानिकों के अनुसार भारतीय प्रजाति की मछलियां बहते हुए पानी में ही प्रजनन के लिए सक्षम होती हैं, जबकि चीनी मछलियां ठहरे हुए पानी में भी प्रजनन कर लेती हैं। इसके बच्चे आठ माह में एक से डेढ़ किग्रा वजन के हो जाते हैं जबकि भारतीय मछलियों के बच्चे यह वजन पाने में एक साल लगा देते हैं। इस तरह जनसंख्या की जंग में कामन कार्प ने तीन दशक के दौरान पूरे देश की नदियों पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है।
कुछ वर्षों पहले सरकार ने एक और विदेशी मांगुर बिगहेड तथा बांग्लादेश की पयामी मछलियों के पालन तथा बीज वितरण पर मत्स्य वैज्ञानिकों की रिपोर्ट के आधार पर प्रतिबंध तो लगाया लेकिन इनकी बिक्री रोक पाने में उसे कामयाबी नहीं मिली। मत्स्य विभाग के अधिकारी ऐसी मछलियों को पकड़ने के बाद गढ्ढे खोदकर जमीन में दफन करते रहे। बीज वितरण पर कड़ाई से प्रतिबंध लगाया गया। बावजूद इसके ये मछलियां मत्स्य बाजारों में धड़ल्ले से बिक रही हैं।
गंभीर बात यह है कि बौद्धिक संपदा अधिकार के तहत कोई भी देश अपनी संपदा पर टैक्स लगा सकता है। यदि चीन ने कामन कार्प को अपनी संपदा घोषित कर, अंतराष्ट्रीय कानून के तहत दावेदारी ठोक दी तो उस पर भारत को टैक्स देना पड़ सकता है। ऐसे में हमारी अर्थव्यवस्था को तगड़ी चोट लगेगी।
दिनों-दिन मर रही गंगा के लिए एक और बुरी खबर है। समुद्री जल में पनाह पाने वाले खतरनाक परजीवी रास्टेल एस्केरिस वाराणसी, इलाहाबाद और कानपुर से उत्तर 10 किलोमीटर तक गंगा के जल में पाया गया है। केवल खारे जल में जिंदा रहने वाला यह परजीवी, थाई मांगुर जैसी हत्यारी मछलियों को भी चट कर जाता है। थाई मांगुर और खारे जल की मछली साइप्रिनस कार्पियो इलाहाबाद में गंगा के साथ यमुना में भी पाई गई हैं, नतीजा यह है कि इन दिनों देशी मछली सिंघी और बेकरी हमारी नदियों से गायब हो रही हैं।
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विशेषज्ञों की चिंता यह है कि दो बाहुबली मछलियां और उन्हें भी चट कर जाने वाला यह परजीवी गंगा-यमुना में न सिर्फ जिंदा है, बल्कि तेजी से बढ़ती जा रही हैं। इन पर नजर रखने वालों का कहना है कि मात्र कुछ वर्ष ऐसे और रह गया तो बाम और सौरी जैसी देशी मछलियों का भी अंत हो जायेगा। बड़ा खतरा गंगा जल पीने वालों के लिए है, क्योंकि यह परजीवी इंसान की पाचन शक्ति बिगाड़ने में भी सक्षम है। इन मछलियों और परजीवी की मौजूदगी से साफ है कि गंगा समुद्र का गुण अपना रही है। प्रदूषण के कारण हो रहा यह परिवर्तन नहीं रूका तो नतीजे बेहद खतरनाक हो सकते हैं।
इस खतरे को शुरुआत में ही खोज निकालने का श्रेय जाता है, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जंतु विज्ञान विभाग की शोध छात्रा गीतांजलि को – जिन्होंने गंगा-यमुना की मछलियां और उनके जीवन में हो रहे बदलावों पर अध्ययन किया है, जिनको सहयोग दिया है उनके गुरु डाॅ. संदीप मल्होत्रा ने। डाॅ. मल्होत्रा ने बीते अस्सी वर्षों से गंगा-यमुना में रहने वाली मछलियों, कीटों, वनस्पतियों और सभी परजीवियों के बारे में अध्ययन किया था। इस खतरे से निदान के लिए उन्होंने अपने कुछ उपाय भी सुझाए।
गोवा विश्वविद्यालय के परजीवी विभाग से संपर्क कर थाई मांगुर की मौजूदगी से होने वाले नुकसान और उसके निदान की जानकारी ली। सूबे की किन अन्य नदियों में यह मछली बढ़ रही है और क्या खतरे देखने को मिल रहे हैं, इसका आकलन हो पाता, इससे पहले ही गीतांजलि ने उनके सामने रास्टेल एस्केरिस रख दिया। डाॅ. मल्होत्रा के अनुसार उनके लिए यह अजूबा था। डाॅ. मल्होत्रा ने इलाहाबाद के साथ कानपुर व वाराणसी से गंगाजल के नमूने जुटाए। जांच की तो पता चला कि रास्टेल का कुनबा सभी जगह मौजूद है। कुछ और जांच की तो पता चला कि सिंघी और बेकरी प्रजातियां गंगा से साफ हो चुकी हैं। दो हत्यारी प्रजाति की मछलियों की मौजूदगी की वजह से यह अंसभव भी नहीं था।
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उत्तर प्रदेश में गंगा, गोमती व यमुना के पानी में अर्सेनिक और क्रोमियम की मात्रा बढ़ रही है। इन तत्वों की मौजूदगी के कारण मछलियों की तीन प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। टार, मुसुल्लाह, महाशेर, ओमपाॅक, पपदा और पाबों प्रजाति की मछलियां नदियों में पहले ही नहीं मिल रही हैं। ब्रह्मपुत्र और कावेरी में भी यह पहले ही खत्म हो चुकी हैं। वैज्ञानिकों ने थुम्बी, गोंच, अरंगी, सिधर, दरही और मोए समेत 13 प्रजातियों को बचाने के लिए रेड अलर्ट घोषित किया है।
राष्ट्रीय मत्स्य आनुवांशिक संसाधन ब्यूरो के शोधकर्ताओं ने मछलियों के विलुप्त होने की वजह पानी में बढ़ता धात्विक रसायन बताया है। इस वजह से नदियों में खाद्य सामग्रियां एक तिहाई ही रह गई हैं। वैज्ञानिकों ने साफ किया है कि शिकार की वजह से मछलियों की प्रजातियां खत्म नहीं होतीं, बल्कि पानी में लगातार बढ़ता घातक रसायन मछलियों में जीनोटाॅक्सिक आनुवंशिक विषाक्तता प्रभाव डाल रहा है।
लखनऊ में गोमती, आगरा में यमुना और कानपुर में गंगा से वाम और गिरई मछलियों के नमूने परीक्षण के तौर पर लिए गए। उन नमूनों में मछली की कोशिकाओं में कुछ असामान्य लक्षण देखे गये जिसमें गुणसूत्र अलग होकर असामान्य माइकोन्यूक्लियस बना रहा है। गोमती में पायी जाने वाली रोहू मछली का पिछला हिस्सा असामान्य पाया गया। यमुना नदी पर शोध करने वाली डाॅ. राखी चैधरी के अनुसार प्रोटो आंकोजीन कैंसर के कारक जीन को बढ़ाने वाले रसायन मछलियों में ट्यूमर बढ़ा रहे हैं। यमुना और गोमती की मछलियों की कोशिकाओं में आर्सेनिक व क्रोमियम की मात्रा अधिक पाई गई।
भारतीय वैज्ञानिक वैसे इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए गंभीर प्रयास में जुटे हैं, लेकिन जिस प्रकार चीनी मछलियों ने भारतीय नदियों पर कब्जा जमा लिया है उससे छुटकारा पाना मुश्किल लग रहा है। चीन की चतुराई ने न केवल भारतीय मछलियों को आघात पहुंचाया है बल्कि उसकी नजर अब भारतीय अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करने पर लगी है।
– कौशल किशोर