अजय चौहान || जिस प्रकार से मुगल लुटेरों और फिर अंग्रेजों ने भारत को अपनी जागीर समझकर यहां की अपार दौलत और बेशकीमती सामानों को लुटा और उसे अपने साथ ले गए, इस रहस्यमयी लौह स्तंभ को भी लेकर जाना तो चाहा ही होगा। लेकिन वे लोग इस रहस्यमयी लौह स्तंभ को यहां से ले कर जाने में इसलिए कामयाब नहीं हो सके क्योंकि, यह स्तंभ 6 हजार किलो वजनी है और इतने भारी स्तंभ को वे लोग दूर तक आसानी से नहीं ले जा सकते थे। और अगर वे इसे ले भी जाते तो उनके लिए इसका कोई उपयोग भी नहीं था।
चौथी सदी में बना यह लौह स्तंभ आज लगभग 1600 से अधिक वर्षों से खुले आसमान के नीचे सदियों से हर प्रकार के मौसम का सामना कर रहा है। यह एक ऐसा रहस्यमयी लौह स्तंभ है जो विज्ञान और इतिहास दोनों के लिए एक पहेली बना हुआ है।
लगभग सात मीटर ऊँचे इस लौह-स्तंभ पर संस्कृत में जो लिखा गया है उसके अनुसार इसे मथुरा में, राजा चन्द्र द्वारा निर्मित विष्णु-मंदिर के सामने ध्वज-स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। जबकि अनुवादक यह भी मानते हैं कि वहां इस पर गरुड़ स्थापित किया गया था इसलिए इसे गरुड़-स्तंभ भी कहा जाता है। और फिर सन् 1050 में, आधुनिक दिल्ली के संस्थापक महाराजा अनंगपाल द्वारा इसे दिल्ली में लाकर यहां के विष्णु स्तंभ यानी कुतुबमीनार के प्रांगण में लगवा दिया होगा।
इस रहस्यमयी लोह स्तंभ के बारे में इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता मानते हैं कि इसके ऊपर पहले कभी भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ की मूर्ति रही होगी, क्योंकि इसके शिलालेख के अनुसार इसको विष्णु ध्वज यानी गरुड़ स्तंभ नाम इसीलिए दिया गया है। इसके ऊपरी भाग की बनावट को देखकर ही लगता है कि इस पर किसी मूर्ति को स्थापित करने के लिए ही इसका यह भाग इस प्रकार से बनाया गया होगा।
इस लौह स्तंभ पर गुप्तकाल की ब्राह्मी लिपि में लिखा शिलालेख भी अंकित है, जिसको सन 1903 में पंडित बाकें राय जी ने पहले तो देवनागरी लिपि में बदला और फिर उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। उस अनुवाद के अनुसार शिलालेख पर लिखा है कि – ”संगठित होकर आये शत्रुओं को बंगाल की लड़ाई में खदेड़ देने वाले जिस राजा की भुजाओं पर यश का लेख तलवार से लिखा गया हो, जिसने सिंधु नदी में सात मुहानों को पार कर बहिलको को जीता, जिसकी शक्ति के झोंकों की सुरभि आज भी दक्षिण समुद्र में बसी है, जिसके शांत हो चुके महादावानल की आंच जैसे प्रताप ने शत्रुओं का नाश कर दिया वह राजा खिन्न होकर पृथ्वी छोड़ गया और अपने कार्यों से अर्जित लोक में विचरण करता है उसका यश पृथ्वी पर कायम है। अपने बाहुबल से दुनिया में एकछत्र राज्य स्थापित कर बहुत दिनों तक उपभोग करने वाले पूर्ण चन्द्र का मन विष्णु में रम गया और विष्णु पद पहाड़ी पर विष्णु ध्वज की स्थापना की।”
लौह स्तंभ पर अंकित उस लेख को देखते हुए इतिहास के अधिकतर विद्वानों का यही मानना है कि इसको महान हिंदू सम्राट महाराजा विक्रमादित्य ने ही बनवाया होगा। जबकि, शिलालेख पर अंकित राजा चन्द्र कौन-सा राजा है, यह आज तक निश्चित नहीं हो पाया है। हालांकि, इस पर जिस राजा का नाम लिखा है वह “चन्द्र” नाम भी महाराजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की ओर ही संकेत करता है।
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हालांकि, कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि, महाराजा विक्रमादित्य ने जब शक और कुषाण जाति के विदेशी आक्रान्ताओं को भारत भूमि से बाहर खदेड़ दिया था तो उन पर हुई इस महान विजय की स्मृति के रूप में उन्होंने इस स्तंभ का निर्माण करवाया था इसलिए इसे विजय स्तंभ भी कहा जाता है। जबकि कुछ इतिहाकार ये भी मानते हैं कि इस स्तंभ का निर्माण गुप्त वंश के महान चंद्रगुप्त ने सम्राट विक्रमादित्य की याद में करवाया था।
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि जिस विष्णु पद पहाड़ी और विष्णु ध्वज का जिक्र किया गया है वह इस समय बिहार के गया जिले में स्थित भगवान विष्णु का मंदिर भी हो सकता है। लेकिन यह लौह स्तंभ दिल्ली में कैसे आया कोई नहीं जानता।
महाराजा चंद्रगुप्त ने 380 ईसवी से 413 ईसवी तक राज किया था। या फिर हो सकता है कि यह लौह स्तंभ महाराजा चंद्रगुप्त के पुत्र और गुप्त वंश के अगले राजा कुमारगुप्त ने बनवाया होगा। महाराजा कुमारगुप्त ने 413 ईसवी से 455 ईसवी तक राज किया था तो जरूर इस स्तंभ का निर्माण आज से लगभग 1600 साल पहले 413 ईसवी में हुआ होगा। इसी प्रकार के कई इतिहासकारों ने इस विषय पर अपने-अपने तर्क और अपनी-अपनी राय दी है। लेकिन राजा चंद्र हैं कौन इस पर एक भी ठोस साबुत नहीं दे पाए।