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होली उत्सव – कल आज और कल | Holi Festival

admin 5 December 2021
HILI
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भारत के अत्यंत प्राचीन पर्वों में से एक होली को ‘होलिका’ या ‘होलाका’ के नाम से भी मनाया जाता था। लेकिन अब समय के साथ-साथ इसका ऊच्चारण ‘होली’ ही चलन में है। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा जाने लगा, लेकिन यह भी उतना प्रचलित नहीं है जितना की होली शब्द है।

साहित्यकारों और इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, कथा गाह्र्य-सूत्र और जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र, भविष्य पुराण और नारद पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी होली पर्व के कई विशेष उल्लेख हैं। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। इसके अलावा संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।

बात यदि मध्यकालीन भारतीय मंदिरों में बने भित्तिचित्रों और आकृतियों की करें तो उनमें भी होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। होली से संबंधित प्राचीन भित्तिचित्रों, चित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इसके अनेकों चित्र मिलते हैं।

मेवाड़ के एक कलाकार द्वारा बनाई गई 17वीं शताब्दी की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। इसमें शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही है और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड भी रखा हुआ है। इसी तरह बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है, जबकि कुछ महिलाएं उस राजा के गालों पर गुलाल मल रही हैं।
होली जिस प्रकार से अनेकों रंगों का एक त्योहार है उसी प्रकार से इसको मनाने की प्राचीन परंपराएं भी और उनके स्वरूप और उद्देश्य भी अनेक माने गए हैं। माना जाता है कि प्राचीन काल में यह उत्सव विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी।

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वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। माना जाता है कि उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। कई क्षेत्रिय भाषाओं और बोलियों में अन्न को होला कहा जाता है, इसीलिए इस उत्सव का नाम होलिकोत्सव पड़ा है।
भारतीय ज्योतिष पंचाग के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से ही नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। और इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का भी आरंभ होता है। इसीलिए यह पर्व नवसंवत का आरंभ और वसंत के आगमन का प्रतीक भी माना गया है। इसके अलावा इसे मन्वादितिथि भी कहा जाता है क्योंकि इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था।

प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों और स्वरूपों का विस्तार से वर्णन मिलता है। अगर हम श्रीमद्भागवत महापुराण की बात करें तो इसमें होली को रसों का समूह रास कह कर भी संबोधित किया गया है। अन्य रचनाओं की बात करें तो रत्नावली और हर्ष की प्रियदर्शिका तथा कालिदास की कुमारसंभवम् जैसी रचनाओं में ‘रंग उत्सव’ का वर्णन है।

कालिदास ने भी अपनी एक रचना ऋतुसंहार में ‘वसन्तोत्सव‘ को विशेष रूप से स्थान दिया है। माघ और भारवि जैसे अन्य कई संस्कृत कवियों ने भी इस उत्सव को ‘वसन्तोत्सव‘ बताया है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में भी होली का विशेष वर्णन मिलता है। इसके अलावा अन्य अनेकों साहित्यकारों और कवियों ने अपनी रचनाओं में होली और फाल्गुन माह को महत्व दिया है।

‘वसन्तोत्सव‘ विषय के माध्यम से जहां अनेकों कवियों और साहित्यकारों ने जहाँ एक ओर अपने-अपने काल्पनिक नायक और नायिका के बीच खेली गई प्रेम की होली वर्णन किया है, वहीं राधा और कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण, साकार, भक्तिमय, प्रेम, और निर्गुण तथा निराकार भक्तिमय प्रेम का भी प्रस्तुतिकरण किया है।

– ज्योति सोलंकी, इंदौर

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