सनातन शास्त्रों के अनुसार भगवान केदारनाथ के विषय में जो कहानी पढ़ने और सुनने को मिलती है उसके अनुसार माना जाता है कि हिमालय के इस क्षेत्र में भगवान विष्णु के चैथे अवतार महातपस्वी ‘नर’ और ‘नारायण’ नामक दो ऋषि तपस्या करते थे। उन्होंने भगवान शिव का पार्थिव शिवलिंग बनाकर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उसमें विराजने के लिए भगवान शिव से प्रार्थना की और हिमालय के बदरीकाश्रम में कई वर्षों तक तपस्या की।
नर और नारायण नामक उन दोनों ऋषियों की आराधना और तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उनकी प्रार्थना के अनुसार हिमालय के केदारतीर्थ में ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हो गए। मान्यता है कि बद्री-केदार घाटी में नर और नारायण नामक दो पर्वत आज भी विद्यमान हैं। नर और नारायण नामक उन दो पर्वतों के विषय में यह भी माना जाता है कि जिस दिन वे दोनों पर्वत भूस्खलन के कारण आपस में मिल जाएंगे उसी दिन यह तीर्थ भी लुप्त हो जाएगा।
भगवान केदारनाथ तीर्थ के जन्म की दूसरी कथा पर यदि गौर करें तो पता चलता है कि यह कथा हमारे पुराणों और महाभारत जैसे ग्रंथ से भी जुड़ी हुई है। हमारे पुराणों में पंचकेदार की कथा का स्पष्ट वर्णन मिलता है। जिसके अनुसार, महाभारत के युद्ध में विजयी होने के बाद पांडव अपने भाई-बंधुओं की हत्या के पाप से मुक्त होना चाहते थे। ऋषियों ने पांडवों को इस पापमुक्ति के लिए भगवान शंकर की शरण में जाने का सुझाव दिया। जिसके बाद पांडवों ने देवाधिदेव महादेव के दर्शन के लिए काशी के लिए प्रस्थान किया।
पांडव जब काशी पहुंचे तो भगवन शिव वहां नहीं मिले। साधुजनों के कहने पर पांडवों ने उनकी खोज के लिए हिमालय के बद्री क्षेत्र के लिए निकल पड़े। कहा जाता है कि भगवान शंकर स्वयं नहीं चाहते थे कि वे पांडवों को दर्शन दें, इसलिए वे वहां से भी अंतरध्यान हो कर केदार में जा बसे। और पांडवों को जब यह पता चला तो वे भी उनके उनके दर्शनों के लिए केदार पर्वत पर पहुंच गए।
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कहा जाता है कि भगवान शंकर ने पांडवों को अपनी ओर आता देख बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को यह बात समझ में आ गई कि शायद भगवान शिव हमें दर्शन देना नहीं चाहते। तब उन्होंने केदार क्षेत्र में भगवान शिव को खोजने के इरादे से घेराबंदी शुरू कर दी।
माना जाता है कि भीम ने अपना विशाल रूप धारण करके दोनों पहाड़ों पर अपने पैर फैला दिए। जिसके बाद अन्य सभी गाय-बैल तो भीम के पैरों के नीचे से निकल गए लेकिन शंकरजी रूपी बैल पैर के नीचे से निकलने को तैयार नहीं हुए। बैल रूपी भगवान शंकर वहीं अड़ गए। यह देख कर भीम ने तुरंत ही उनकी पीठ को पकड़ना चाहा, लेकिन भोलेनाथ ने अपना विशाल रूप धारण कर लिया और धरती में समाने लगे। भीम ने तुरंत ही बैल की पीठ का भाग कस कर पकड़ लिया।
पांडवों की भक्ति और दृढ़ संकल्प देखकर भगवान शंकर खुब प्रसन्न हुए। उसी समय भगवान शंकर अपने असली रूप में प्रकट हो गए और पांडवों को अपने भाई-बंधुओं की हत्या के पाप से मुक्त कर दिया। माना जाता है कि इसी घटना के बाद से श्री केदारनाथ धाम में भगवान शंकर और नंदी बैल की पीठ पर बनी आकृति पिंड के रूप में पूजे जाते हैं।
इसके अलावा यह भी माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अन्तध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग जटाओं के रूप में आज भी कल्पेश्वर में पूजा जाता है। तुंगनाथ में शिव की भुजाएं पूजी जाती हैं, उनका मुख रुद्रनाथ में पूजा जाता है, उनकी नाभि मदमदेश्वर में और केदार में बैल के धड़ के रूप में पूजा होती है। मान्यता है कि इसीलिए इन्हीं पांचों स्थानों को पंचकेदार तीर्थ भी कहा जाता है।
– ज्योति सोलंकी, इंदौर (मध्य प्रदेश)