पुरातत्व, पर्यटन, इतिहास और धार्मिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण औरंगाबाद, जहानाबाद, नवादा और गया जिले के शेरघाटी अनुमंडल स्थित एक 100 किलोमीटर के भीतर फैले बौद्ध, जैन तथा हिंदू धर्म के तमाम स्थल आज भी उपेक्षित हैं। इन्हें यदि एक योजनाबद्ध तरीके से बड़े पैमाने पर “बौद्ध सर्किट” से जोड़ दिया जाए तो ये इस क्षेत्र के पर्यटन तथा यात्रियों के लिए सुलभ और आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद हो सकता है।
राज्यपाल तथा बिहार पुरातत्व निदेशालय निदेशक से प्रशंसित एवं प्रशस्ति प्राप्त इतिहासकार तथा पुरातत्व वेत्ता डॉक्टर शत्रुघ्न दांगी के अनुसार सिद्धार्थ गौतम कपिलवस्तु से ज्ञान की खोज में जब निकले थे तब गुरु अराड कलाम और गुरु उद्दक रामपुत्र से पहले ज्ञान अर्जन करना चाहा, किंतु जिस सत्य की खोज में ये निकले थे, वह इन दोनों गुरुओं के ज्ञान से ऊपर था और आगे बताने में उन्होंने असमर्थता जताई। तब वे राजगीर होते हुए “प्राग- बोधी” ऊरूवेला पहुंचे। इनके साथ पांच अन्य भिक्षु भी तपस्या के लिए कौण्डिण्य, वप्प, महानाम, भदि्य और अश्वजीत साथ हो लिए थे। सभी कठिन तपस्या करने लगे। बुद्ध ने तो खाना तक छोड़ दिया था, जिससे उनका शरीर कृषकाय बन गया था।
इसी बीच सेनानी ग्राम की बाला सुजाता को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। वह पूजन हेतु वहां पहुंची। साथ में सोने की थाली में खीर लेकर आई थी। वह उन्हें समर्पित की और सखियों के साथ जो गीत गाती थी उसका भावार्थ था कि वीणा के तार को इतना नहीं कसो कि वह टूट जाए और ढीला भी इतना नहीं छोड़ो कि वह बजे ही नहीं अर्थात मध्य मार्ग का अनुसरण करो। इतना सुनकर गौतम ने वही किया ।सुजाता द्वारा अर्पित खीर को खा लिया। यह देख उनके साथ चल रहे पंचवर्गीय भिक्षुओं ने उन्हें पथभ्रष्ट समझकर छोड़ कर चल दिए। अतः जंगल और पहाड़ों से भरे क्षेत्र जो सिल्क मार्ग के रूप में व्यापारियों और यात्रियों के लिए जाना जाता था वह दक्षिण पश्चिम का क्षेत्र शेरघाटी से गुजरता था। उसी रास्ते को वे लोग पकड़कर बांकेधाम, बलथरवा के रास्ते धोबिनी पहाड़ पहुंचे और चूँकि वहाँ जल का स्रोत वह रहा था इसलिए वहीं कुटिया बनाकर वे सभी रहने लगे और तपस्या करने लगे। पास के गांवों से भोजन की व्यवस्था आसानी से हो जाती थी। पांच तपस्वियों की पांच कुटिया को लोग “पचमठ” कह कर पुकारने लगे। वही आज पचमह नाम से प्रसिद्ध है।
उधर गौतम निरंजना नदी पार कर उरुवेला में अश्वत्थ वृक्ष के नीचे ध्यान लगाए, जहां उन्हें “संबोधि” की प्राप्ति हुई। तब सिद्धार्थ गौतम से “बुद्ध” कहलाए और यह स्थान बोधगया के नाम से जगत प्रसिद्ध हो गया। बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति बुद्ध पूर्णिमा अर्थात वैशाख पूर्णिमा को हुआ था। 49 दिनों तक वे उरुवेला के पास ही चण्क्रमण, अनिमेष लोचन, रत्न मंडप, राजायतन तथा मुचलिंद सरोवर आदि स्थानों में अपना ध्यान केंद्रित किया।
इसके बाद प्राप्त दिव्य ज्ञान को वे अपने प्रथम दो गुरुओं को बताना चाहते थे, किंतु पता लगा कि वे दोनों गुरु कुछ ही दिनों पूर्व इस संसार को छोड़ चुके थे। तब वे फिर अपने पंच वर्गीय साथियों के बारे में पता लगाना शुरू किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि सिल्क मार्ग के रास्ते वे लोग दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर गए हैं। यह जानकर अब बुद्ध दक्षिण – पश्चिम की ओर यात्रा प्रारंभ की, तो सबसे पहले वे बोधगया के वर्तमान दोमुहान से चले और सांस्कृतिक नगर देवकली पहुंचे। वहां कुछ समय रुकने के बाद आगे की यात्रा प्रारंभ की।
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इस बीच गौतम बुद्ध ने मीरादपुर, परसोहदा, पननियाँ, घटेरा, असनी होकर मंडा पहाड़ पहुंचे। यहां रुकने के बाद वे भुरहा, डुब्बा और गुणेरी में रुकते हुए सिल्क मार्ग जो शेरघाटी होकर इमामगंज, रानीगंज (लाह उद्योग का बड़ा केंद्र यहां, समृद्धि का परिचायक राहगीरों तथा व्यापारियों को पानी पीने के लिए कुएँ की बाल्टी में सोने की चेन लगी रहती थी) होकर डालटेनगंज (झारखंड) कलिंग (उड़ीसा) चीन तक जाती थी, पकड़कर बाँकेधाम, डुमरांवा, सिंहपुर- बलथरवा (जहां 3 किलोमीटर में फैले 10- 12 फीट चौड़ी दीवार से आवृत बसागत व विहारों के बीच बौद्ध स्तूप के लिपियुक्त हेमाटाइट पेंप्टिंग्स मिले हैं। वहां रुकने के बाद वे आदिमकाल के शैलाश्रय जो शंकरपुर के पास बड़े गोल आकार के बने शिलाखंड में रंगीन चित्र हैं, वहां रुकते हुए डुमरिया प्रखंड के धोबीनी घाट (बुधनी व बुद्ध पहाड़) पहुंचे, जहां पंच वर्गीय भिक्षु कुटिया बना कर रह रहे थे। गौतम बुद्ध को मठ की ओर आते देख पांचो भिक्षु सोंचने को विवश हो गए कि आखिर हमलोगों के पास गौतम क्यों ढूंढते हुए आ रहे हैं ? पहले तो वे सभी उन्हें अनादर की दृष्टि से पथ भ्रष्ट के रूप में देखा, किंतु ज्योंही ही वे उन सबों के निकट आए तो बुद्ध से जो आभा निकल रही थी उसे देख वे सभी अचंभित हो गए और उन्हें बड़े ही आदर पूर्वक दंडवत करते हुए उच्च स्थान पर बैठाया।
गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के उपदेश दिए और उन्हें बतलाए कि आप सभी भी बुद्ध यानी ज्ञान की शरण में जाकर मुक्ति पा सकते हैं।उन्होंने बतलाया कि – “मानवीय तृष्णा ही सभी दुखों का कारण है।” इसे नष्ट करने के उपाय हैं- वे अष्टांगिक मार्ग है। अष्टांगिक मार्ग में – सम्यक दृष्टि, सम्यक वाणी, सम्यक संकल्प, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका, सम्यक स्मृति,सम्यक प्रयत्न और सम्यक समाधि है। यह उपदेश देकर उन्हें अपना “बुद्धम शरणम गच्छामि” सूत्र वाक्य कह कर शिष्य बना लिया। सभी उनका साष्टांग दंडवत करते हुए उनका शिष्यत्व स्वीकार किया और उनके साथ हो लिए। फिर सभी मल्हारी, लुटूआ, असुरैन, डूमरी, सोनडाहा (सोना गलाने और गुप्त काल में सोने के सिक्के ढालने का टकसाल) होते हुए ऐतिहासिक स्थल उमगा और इसके बाद आमस होते हुए सहस्राम (सासाराम) होकर ऋषि पत्तन- सारनाथ पहुंचे और पंच वर्गीय भिक्षुओं को धम्म की शिक्षा दी। यहीं उन्होंने “धम्मम् शरणम् गच्छामि” और संघ बनाकर उन्हें सभी दिशाओं में जाने की भी आज्ञा दी। संघ की स्थापना उन्होंने यहीं की “संघम् शरणम् गच्छामि”। इसी समय काशी का प्रसिद्ध सेठ यश नाम का उनसे मिला और अपनी सारी संपत्ति को बुद्ध की चरणों में समर्पित कर उनका शिष्य बन गया और संघ के साथ होकर बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में गांव-गांव नगर नगर भ्रमण करने लगा।
यहां से बुद्ध वापस लौटेते हुए वे च्यों -पचार (रफीगंज) होते हुए टिकारी, मखपा, सिमुआरा, जमुआरा, नोनी, मखदुमपुर, केशपा के बाद जहानाबाद के प्रसिद्ध नगरी धराउत, धरावत कंचनपुर, धर्मपुर आदि नामों से जो प्रसिद्ध स्थल रहा वहाँ रुकते हुए भेलावर और फिर नालंदा पहुंचे।
कुमारगुप्त ने इसी नालंदा में विश्वविद्यालय की स्थापना की थी, जहां चीनी यात्री ह्वेनसांग, इत्सिंग आदि विद्वानों ने अध्ययन किया था। यह विश्व का सबसे बड़ा प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था, जहां 10000 छात्र अध्ययन करते थे तथा 2000 शिक्षक थे। यहां धर्मपाल, शीलभद्र, चंद्रपाल, गुणवती और स्थिरमति जैसे प्रकांड विद्वान आचार्य थे। तीन तलों में लाइब्रेरी थी, जिनमें लाखों पुस्तकें, पांडुलिपियाँ तथा दुर्लभ ग्रंथों का भंडार था, जिसे बख्तियार खिलजी तुर्क आक्रमणकारी ने हुण शासक मिहिरकुल द्वारा क्षति पहुंचाने के बाद उसने तो इसे जला कर नष्ट ही कर दिया था।
राजगीर से कुर्किहार, अपसढ़, इटखोरी आदि स्थलों की भी बुद्ध ने यात्रा की थी। इस प्रकार हम पाते हैं कि बोधगया ज्ञान स्थली से लगभग 100 किलोमीटर की परिधि में प्राचीन जमाने में बौद्ध धर्म मार्ग से मगध की धरती विश्व में प्रसिद्ध थी, जो आज सरकार की उपेक्षा के कारण अभी तक उपेक्षित है। इसे यदि विकसित किया जाए तो वह विश्व पटल पर पर्यटकों तथा तीर्थ यात्रियों के लिए अति उत्तम, सहज और आकर्षक पर्यटक केंद्र बन सकता है।
– Dr. Shatrughan Dangi
Historion and Archlogist (Tekari, Gaya), Bihar