जीवन केवल भौतिक पदार्थों का संघटन मात्र नहीं है। न यह केवल चेतना का ही संचार मात्र है। जीवन चेतन-अचेतन का संमिश्रण है। न केवल पदार्थ से कार्य संपन्न हो सकते हैं न केवल चेतना से ही सारी व्यवस्था। इन दोनों का सम्यक् मिलन ही सृष्टि की सजीवता है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड से लेकर क्षुद्र जीव तक में स्पष्टतया यह भासित होता है। सारी जगती एक अजस्र ऊर्जा स्रोत से संचालित है। ऊर्जा स्रोत का मूल ही परमेश्वर है, जिसें आज का विज्ञान प्रकृति शब्द से शब्दित करता हैं, जो ईश्वर की सत्ता को नकारना चाहता है। कोई न कोई परम व्यवस्थापक है, जिससे इतनी विचित्रतायें व्यवस्थित हैं।
जब-जब व्यवस्था में विकृति प्रकट होती है, तो उसे प्राकृत अवस्था में लाना अत्यंत आवश्यक होता है, नहीं तो सारी सृष्टि विनाश के गर्त में समा जायेगी और जीवन का सर्वनाश हो जाएगा। इसके लिए ईश्वरीय व्यवस्था भी काफी मजबूत है पर कई बार व्यष्टि कृत दोषों से समष्टि में बड़ी विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं, जिसे मानव समाज ही दूर कर सकता है प्रकृति नहीं। जैसे- गंगा को गंदे नाले में बदलना। गंगा स्वभावतः स्वच्छ है लेकिन हमनें उसे नष्ट करने के लिए प्रयत्न किया चाहे जानकर या अनजाने में। वायु स्वभावगत शुद्ध है और प्राकृतिक व्यवस्था से कुछ अशुद्धियां स्वतः दूर हो जाती भी हैं पर विषाक्त तो हमने बनाया न; हम विष वमन छोड़ दें तो वह अपने स्वभाव में आ जाए।
पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, तेज इन पांच का फैलाव ही प्रपंच है, सृष्टि है ये एक-दूसरे से मिल कर अनन्त कार्य काल उत्पन्न करते हैं जिससे समय भी व्यवस्थित ढ़ंग से चलता है, चाहे वो किसी दैहिक व्यवस्था को लें या ब्रह्माण्डीय व्यवस्था को; जीवन तत्त्व के सम्बन्ध में ऋषियों के दृष्टिकोण अद्भुत् और क्रांतिकारी हैं। अतिधन्य अथर्ववेद कहता है- “अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः।’ यह जो यज्ञ है वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की नाभि है, नाभि यानि मूलतत्त्व, शारीरिक शास्त्र में नाभि के स्वस्थान पर रहने से ही
सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ रहता है, जैसे ही नाभि अपने स्थान से हिलती है पाचन तंत्र बिगड़ कर शरीर और जीवन तत्त्व का नाश कर देता है। अतःएव मूल को सुरक्षित करना जरूरी है।
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वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, पुराण, स्मृतियां, इतिहास एवं अन्य ग्रंथों में हजारों सूक्तियां उपलब्ध हैं जो यज्ञ को जीवन का आधार बताती है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं विधिसम्मत यज्ञ से विधिसम्मत पर्जन्य पैदा होता है और उस यज्ञ निर्मित मेघ से उत्कृष्ट अन्न उत्पन्न होता है और उस उत्कृष्ट अन्न से हमारा शरीर उत्पन्न एवं सम्पुष्ट होता है। वस्तुतः सृष्टि चक्र को ढ़ंग से चलते रहने के लिए यज्ञ ही एकमात्र उपाय है। आपस में सम्पूर्ण व्यष्टि समष्टि जुड़ी हुई है। अतः एक दूसरे का ध्यान रखकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। हवा-पानी, वनस्पतियां व प्राणी जगत-एक दूसरे के उपकारक हैं।
आज वायु प्रदूषण से नाना प्रकार के जटिल रोग अत्यधिक बढ़ रहे हैं, इन्हें रोकने के सारे तरीके तो अपर्याप्त हो चुकें हैं। यज्ञ ही वह उपाय है जिससे समष्टि जीव-जगत नीरोग हो सकता है। विधि-विधान पूर्वक समंत्रक यज्ञ अपनी ऊर्जा के द्वारा सबको विषाणुहीन बना कर शरीर को, वृक्षों को, वनस्पतियों को, पशुओं को व पर्यावरण को प्राणवान बना देता है।
यज्ञ अग्नि एवं वेदः ध्वनि अपनी ओजस्विनी शक्ति का प्रभाव सब पर छोड़ते हैं और आज आधुनिक-विज्ञान भी यह तथ्य मानने के लिए विवश है। वेद कहता है- ‘यज्ञो वै परशुः’ यज्ञ फरसा गड़ासा या कुलहाड़ी है। अब विचार करें कि यज्ञ को फरसा क्यों कहा गया है ? क्या काटता है यज्ञ? हमारे वातावरण के मध्य जो प्रदूषण की विष-बेल उग आई है उसे काटने के लिए यज्ञ ही फरसा है। जीवन में रोगाणुओं को नष्ट करने के लिए यज्ञ ही फरसा है। समाज में व्याप्त पापाचार, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, अनाचार व दुराचार को नष्ट करने के लिए यज्ञ ही फरसा है। यज्ञ ही वह विधि बताता है कि कैसे जियें। यज्ञ कर्ता जिन मंत्रांे का प्रयोग करता है उनका कभी न कभी विचार जरूर करता है तब आध्यात्मिक रहस्य उद्घाटित होता है।
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वेद कहता है ‘यज्ञो वै आपः यज्ञो वै अन्नं यज्ञो वै विष्णुः यज्ञो वै प्रजापतिः।’ इन सभी मंत्रों के गूढ़ अर्थ को समझ कर ही राष्ट्र कल्याण हो सकता है। यज्ञ से प्रभावित मेघ सुवृष्टि करके राष्ट्र को समृद्ध करते हैं। यह यज्ञ ही जल है और यही यज्ञ हमारे सामने अन्न देवता के रूप में प्रकट होता है। इसलिए शास्त्र सावधान करता है कि अन्न का कभी भी भूलकर भी अपमान मत करो, उसका दुरुपयोग मत करो या नष्ट मत करो, क्योंकि यह अन्न किसी प्राणी को जीवन दे सकता है।
आज आधुनिकता की चकाचैंध में ऋषियों की यह करुण दृष्टि धुमिल हो रही है। यज्ञ से ही प्रजा की रक्षा होती है और यज्ञ ही व्यापक होकर विष्णु बन कर सबका पालन करता है। चिकित्सा जगत में भी यज्ञोपैथी का प्रचलन बढ़़ रहा है, जिसमें विशिष्ट रोगों को विशिष्ट औषधियों के हवन के द्वारा समाप्त किया जाता है। यज्ञ की व्यापकता कितनी है यह शास्त्रों के दर्शन प्रसार से ही पता चलता है। जो यज्ञ नहीं करता उसका देवत्व समाप्त हो जाता है और उसकी आने वाली पीढ़ियांे में और उसमें भी असुरक्षा का संचार हो जाता है। यज्ञ से श्रेष्ठतम कर्म कोई भी नहीं है।
यज्ञ से ही असुरक्षा का संहार होकर मानवता की अभिवृद्धि होती है और एक अभिनव युग का संकल्प पूर्ण हो सकता है। इसलिए विधि को समझ कर विधान पूर्वक यज्ञ करने पर सम्पूर्ण मानवता कल्याण की भागी बन सकती है, क्योंकि जो यज्ञ को त्यागता है उसे परोपकार भी त्याग देता है।
. शिवयोगी रघुवंश पुरी