श्रीमद्भगद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग समझाते हुए दान, पुण्य, सेवा, उपकार, रक्षा आदि सत्कर्मों को यज्ञ की संज्ञा देते हैं। ‘यज्ञ वै विष्णु’ अर्थात् यज्ञ विष्णु का स्वरूप है और विष्णु व्यापक हैं। ज्ञान, ध्यान, आराधना और चिंतन यज्ञ है, सेवा भी यज्ञ है और देश सेवा सबसे बड़ा यज्ञ है।
यज्ञ की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। ऋषि वनों में रहते हुए प्रातः सायं दैनिक यज्ञ किया करते थे। पंच महायज्ञों का प्रचलन था। धार्मिक अनुष्ठान के समय वृक्षों में भगवान का वास मानकर पीपल, बरगद, आम, अशोक, बिल्व, पारिजात, आंवला आदि की पूजा की जाती थी। ऋषि-मुनि, यज्ञ को सफलता और सिद्धिकारक मानते थे और वायुमंडल की शुद्धि का कारक भी मानते थे। यही कारण था कि उस समय लोग निरोग और दीर्घायु होते थे।
अग्नि अमूल्य है जीवन का संबंध आरोग्यता से है और आरोग्यता का संबंध यज्ञ से। अनगिनत अज्ञात सूक्ष्म जीवाणु हमारे चारों तरफ वातावरण में और हमारे रोमकूपों, रक्त और जोड़ों में रहते हैं। हवन द्वारा इन सभी का नाश होता हैं। जिस घर में प्रतिदिन हवन होता है, वह घर बीमारियों से बचा रहता हैं। मनु के अनुसार, “यज्ञ-व्रतादि से मानव शरीर व आत्मा को ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है। यज्ञ से ही तपने वाल सूर्य कल्याणकारी बनता है और यज्ञ से ही जीवनाधार पर्जन्य (बादल) कल्याणकारी बनकर बरसता है। ‘यज्ञाद भवति पर्जन्यो यज्ञकर्म समुदभवः’ अतः यज्ञ में प्राणि-मात्र के सुखी होने की कामना निहित है।”
चेचक के टीके के आविष्कारक डॉ. हैफकिन का कथन है ‘घी जलाने से रोग के कीटाणु मर जाते हैं’ फ्रांस के वैज्ञानिक प्रो. ट्रिलबिर्ट कहते है, “जली हुई शक्कर में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति है। इससे टी. बी., चेचक, हैजा आदि बीमारियां तुरंत नष्ट हो जाती हैं।” अंग्रेजी शासनकाल में मद्रास के सेनिटरी कमिश्नर डॉ. कर्नल किंग आई.एम.एस. ने कहा, “घी और चावल में केसर मिलाकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।”
Miraculous of Science : यज्ञ में छुपा चमत्कारी विज्ञान
हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने वैज्ञानिक आधार पर शोध करके सामग्री व समिधाओं का चयन किया था। जैसे-बड़, पीपल, आम, बिल्व, पलाश, शमी, गूलर, अशोक, पारिजात, आंवला व मौलश्री वृक्षों के समिधाओं का घी सहित यज्ञ-हवन में विधान किया था, जो आज विज्ञान सम्मत है, क्योंकि यज्ञ का उद्देश्य पंचभूतों की शुद्धि है, जो हमारे पर्यावरण का अंग है। यज्ञ का वैदिक उद्देश्य भी पर्यावरण शुद्धि एवं संतुलन है। यज्ञ-विज्ञान का नियम है कि जब कोई पदार्थ अग्नि में डाला जाता है तो अग्नि उस पदार्थ के स्थूल रूप को तोड़कर सूक्ष्म बना देती है। इसलिए यजुर्वेद में अग्नि को ‘धूरसि’ कहा जाता है।
महर्षियों ने इसका अर्थ दिया है कि भौतिक अग्नि पदार्थों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर उनकी क्रियाशीलता उतनी ही बढ़ जाती है। यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत है। जैसे अणु से सूक्ष्म परमाणु और परमाणु से सूक्ष्म इलेक्ट्रान होता है। अतः ये क्रमानुसार एक-दूसरे से ज्यादा क्रियाशील एवं गतिशील है। यज्ञ में यह सिद्धांत एक साथ काम करते हैं। यज्ञ में डाल गई समिधा अग्नि द्वारा विघटति होकर सूक्ष्म बनती है, वहीं दूसरी तरफ वही सूक्ष्म पदार्थ अधिक क्रियाशील एवं प्रभावी होकर विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।
एक चम्मच घी एक आदमी खाता है तो उसकी लाभ-हानि सिर्फ खाने वाले आदमी तक ही सीमित है, परंतु यज्ञ कुंड में एक चम्मच घी अनेक व्यक्तियों को लाभ पहुंचाता है। जिस घर में हवन होता है, यज्ञाग्नि के प्रभाव से वहां की वायु गर्म होकर हल्की होकर फैलने लगती है और उस खाली स्थान में यज्ञ से उत्पन्न शुद्ध वायु वहां पहुंच जाती है। इसमें विसरणशीलता का वैज्ञानिक नियम काम करता है। इसलिए हम देखते हैं कि किसी पर या कोई स्थान, जहां यज्ञ हुआ रहता है, वहां कई दिनों तक समिधा की खुश्बू विद्यमान रहती है।
– राम लाल