वैश्विक स्तर पर व्याप्त तमाम समस्याओं को सुलझाने, शांति बनाये रखने एवं अन्य तरह की व्यवस्थाओं को कायम रखने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम संगठनों का गठन हुआ है किन्तु बार-बार यह प्रश्न उठता है कि जिन उद्देश्यों को लेकर ये संगठन बने, क्या उसके उद्देश्यों को प्राप्त करने में कुछ कामयाबी मिली है। यदि कामयाबी मिली है तो किस हद तक मिली है और यदि नहीं मिली है तो क्यों नहीं मिली है? इस बात की पूरी व्याख्या एवं चर्चा होनी चाहिए। ऐसी दुनिया के तमाम देशों की सदैव इच्छा रहती है।
वैश्विक स्तर पर यदि प्रमुख संगठनों की बात की जाये तो संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व बैंक, विश्व स्वास्थ्य संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी, संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन, यूरोपीय संघ, नाटो, एशियाई विकास बैंक, राष्ट्रमंडल सहित काफी संगठन अंतराष्ट्रीय स्तर के हैं। इन तमाम संगठनों की उपस्थिति में बार-बार यह प्रश्न उठता रहता है कि क्या ये संगठन आर्थिक रूप से कमजोर एवं छोटे देशों के हितों की रक्षा सुनिश्चित करने में समर्थ हो पा रहे हैं या इनका मुख्य कार्य महाशक्तियों के वर्चस्व को बरकरार रखने एवं और अधिक बढ़ाने का है।
उदाहरण के तौर पर अभी हाल के एक ताजा मामले को लिया जा सकता है, जब पूरी दुनिया को कोरोना ने अपनी चपेट में लिया और विश्व त्राहिमाम कर उठा तो सर्वत्र यह चर्चा होने लगी कि आखिर कोरोना रूपी राक्षस कहां से आया? इसकी व्यापक स्तर पर जांच होनी चाहिए। इस संबंध में दुनिया के तमाम देशों की नजर चीन की तरफ गई किन्तु विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से चीन को बार-बार क्लीन चिट मिली।
आज भी लोग यह जानने के लिए बहुत उत्सुक हैं कि कोरोना प्राकृतिक है या मानव निर्मित। कोरोना के संबंध में अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से अपना नाता तोड़ लिया था और यह आरोप लगाया था कि वह सिर्फ चीन के हितों का वाहक बना हुआ है। यह तो मात्र एक उदाहरण है। महाशक्तियों के हितों की यदि बात की जाये तो अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन, फ्रांस एवं अन्य देशों की प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं।
कई ऐसे देश हैं जिनका मानना है कि दुनिया में यदि हमेशा युद्ध जैसी स्थिति बनी रहेगी तो उनका हथियारों का धंधा चलता रहेगा। ऐसे तमाम मौके आये हैं जब देखने को मिला है कि जब महाशक्तियों के हितों की बात आती है तो अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का रवैया कुछ और होता है और आर्थिक रूप से कमजोर एवं छोटे देशों की बात आती है तो नजरिया कुछ और देखने को मिलता है। इस लिहाज से देखा जाये तो महाशक्तियां अपने हितों को पूरा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का समय के अनुरूप बखूबी इस्तेमाल कर लेती हैं।
अभी हाल ही में देखने को मिला कि अफगानिस्तान में तालिबान का जब कब्जा हुआ तो वहां की समस्याओं को सुलझाने में अंतर्राष्ट्रीय संगठन बिल्कुल निष्प्रभावी दिखे और वैश्विक स्तर पर लोगों में व्यापक रूप से इस बात की चर्चा भी हुई कि तालिबान को सत्ता सौंपना अमेरिका जैसी महाशक्ति की सोची-समझी रणनीति है।
पूरी दुनिया की बात यदि छोड़ दी जाए तो स्वयं अमेरिका में भी अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन के खिलाफ धरना-प्रदर्शन हुए और यह आरोप लगाया गया कि अमेरिका ने अफगानिस्तान को धोखा दिया है। वहां के निवासियों को उनके भाग्य भरोसे छोड़कर अमेरिका पलायन कर गया। पूरे विश्व में साफ तौर पर यह संदेश गया कि अमेरिका विश्वास के काबिल नहीं है। इस दृष्टि से भारत की बात की जाये तो यहां के तमाम विशेषज्ञों ने प्रधानमंत्री एवं भारत सरकार को यह सलाह दी कि अमेरिका पर एकतरफा विश्वास करने के बजाय बेहद सावधान होकर चलने की आवश्यकता है।
इस पूरे प्रकरण का यदि विश्लेषण किया जाये तो अफगानिस्तान की समस्याओं को हल करने में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका बिल्कुल नगण्य या यूं कहें कि नहीं के बराबर दिखी। अमेरिका पर वैश्विक स्तर पर यह भी आरोप लगा कि वह जिस-जिस देश में गया, उसने अपनी वापसी कमोबेश इसी रूप में की, जैसी उसने अफगानिस्तान से की किन्तु प्रश्न इस बात का है कि क्या इन तमाम मामलों में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने अपनी भूमिका का निर्वाह ठीक से किया या महाशक्तियों के इर्द-गिर्द ही घूमते रहे।
इसी प्रकार यदि चीन को उदाहरण के तौर पर लिया जाये तो उसने तिब्बत जैसे शांत देश पर कब्जा कर लिया और वहां की सभ्यता-संस्कृति को बर्बाद करने के साथ सर्वदृष्टि से शोषण कर रहा है किन्तु यहां अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भूमिका कारगर रूप से कभी देखने को नहीं मिली। आज काफी संख्या में तिब्बती भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में निर्वासित होकर अपना जीवन बिता रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के दोहरे मापदंड की बात की जाये तो इराक ने जब कुवैत पर कब्जा किया तो तमाम अंतर्राष्ट्रीय संगठन वैश्विक महाशक्तियों के इशारे पर सक्रिय हो गये और कुवैत की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया। अंततः वह आजाद हो गया। चूंकि, वैश्विक स्तर पर इराक की वह स्थिति नहीं थी जो महाशक्तियों की है। कुल मिलाकर वैश्विक स्तर पर सर्वत्र यही देखने को मिल रहा है कि ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं, यानी जो अपने आप में सर्व दृष्टि से संपन्न एवं समर्थ है उसका कोई दोष नहीं है।
भारत के जम्मू-कश्मीर प्रांत में यदि गलती से भी कोई अप्रिय घटना घटित हो जाती है तो दुनियाभर के मानवाधिकार संगठन एकत्रित होकर शोर मचाने लगते हैं किंतु चीन के मुस्लिम बहुल शिनजियांग प्रांत में आये दिन मानवाधिकारों का हनन होता रहता है परंतु इसके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत मुस्लिम देश भी नहीं जुटा पाते और न ही अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की भी भूमिका कारगर रूप में नजर आती है।
कोरोनाकाल में जो देश अपने आप को बहुत विकसित समझते थे और जहां की स्वास्थ्य व्यवस्था बहुत ऊच्च कोटि की मानी जाती थी, उनके भी हाथ-पांव फूल गये और उनकी छीछालेदर हो गई किन्तु अंतर्राष्ट्रीय संगठनों एवं वैश्विक मीडिया ने उस पर पर्दा डालने का काम किया किन्तु भारत में जब दूसरी लहर का प्रभाव कुछ ज्यादा देखने को मिला तो उससे निपटने के लिए भारत ने अपना सब कुछ झोंक दिया किन्तु पश्चिमी मीडिया ने भारत की प्रतिष्ठा को धूल-धूसरित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी और भारत द्वारा तमाम तरह से दबाव बनाने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की कोई भूमिका देखने को नहीं मिली।
गंगा किनारे तैरती लाशों को अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में ऐसे उछाला गया, जैसे भारत कोरोना से निपटने एवं अन्य समस्याओं के समाधान में पूरी तरह फ्लाप हो रहा है किन्तु यह भी अपने आप में पूरी तरह सत्य है कि झूठ के पांव बहुत लंबे नहीं होते हैं। कुछ समय पूर्व यदि आगे बढ़ा जाये तो जब भारत अपने यहां आतंकवाद, आतंकी वारदातों एवं इससे संबंधित मुद्दों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाता था तो महाशक्तियां भारत की बातों को दरकिनार कर देती थीं किन्तु जब अमेरिका में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर आक्रमण हुआ और दुनिया के विकसित देशों ने आतंकवाद का स्वाद चखा तब जाकर उन्हें एहसास हुआ कि वास्तव में आतंकवाद का दंश बहुत खतरनाक एवं भयावह होता है। कमोबेश, आज पूरी दुनिया ने यह मान लिया है कि आतंकवाद वैश्विक समस्या है और इसका सामना सभी को मिलकर करना है किन्तु महत्वपूर्ण बात वहीं आकर रुक जाती है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठन पूरे विश्व के नजरिये से समस्या का समाधान करेंगे या फिर महाशक्तियों के हिसाब से चलेंगे।
आज शरणार्थियों की समस्या पूरे विश्व के लिए नासूर बन चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या के समाधान के लिए समय-समय पर चर्चा होती रहती है परंतु इसका कोई कारगर उपाय नहीं निकल पा रहा है। उसका एक प्रमुख कारण यह है कि आज विश्व के अधिकांश देश शरणार्थियों को शरण देने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि अतीत में जिन देशों ने शरणार्थियों को शरण दी है, आज वही शरणार्थी उन देशों के लिए नासूर बन रहे हैं और वहां की आंतरिक सुरक्षा के लिए सिर दर्द बन गये हैं। फ्रांस, जर्मनी जैसे देश इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। इस दृष्टि से यदि देखा तो बांग्लादेश एवं म्यांमार से आये घुसपैठिये भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। इसे यूं कहा जा सकता है कि इन घुसपैठियों की वजह से भारत बारूद की ढेर पर बैठा है।
अव्वल बात तो यह है कि पहले ये घुसपैठिये इंसानियत एवं मानवता के नाम पर दूसरे देशों से शरण मांगकर शरणार्थी बनकर जाते हैं और बाद में तमाम तरह की अवांछित गतिविधियों में संलिप्त हो जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ आज भले ही यह कह रहा है कि इंसानियत एवं मानवता के नाते शरणार्थियों को शरण देनी चाहिए किन्तु जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से इसका दंश झेल लिया है, वे किसी भी रूप में शरणार्थियों को शरण देकर किसी भी तरह की मुसीबत लेने के लिए तैयार नहीं हैं। स्वयं मुस्लिम देशों के शरणार्थियों को शरण देने के लिए मुस्लिम देश भी तैयार नहीं हैं। जब मुस्लिम देशों के शरणार्थियों के लिए इस्लामिक देशों का ही रवैया इस प्रकार है तो गैर मुस्लिम देशों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है इस समस्या का कोई सर्वमान्य हल निकाल पाने में संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठन कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम ऐसी मजहबी संस्थाएं हैं जो भारत के खिलाफ अनर्गल प्रचार में लगी रहती हैं किन्तु अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी ऐसी संस्थाओं के प्रति कार्रवाई करने में कम ही दिखती है। विश्व कल्याण की भावना से कार्य करने के मामले में भारत की बात की जाये तो यहां अनादिकाल से ही यह भावना विद्यमान रही है कि ‘जन कल्याण से ही जग कल्याण होगा’, यानी जब प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ, सुखी एवं शांत होगा तभी दुनिया शांति एवं खुशहाली की तरफ अग्रसर होगी।
सनातन संस्कृति में प्राचीनकाल से ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना विद्यमान रही है यानी भारत पूरी वसुधा को एक परिवार मानता है। भारत में जब कहीं पूजा-पाठ होता है तो उसमें ‘विश्व का कल्याण हो’ का उद्घोष किया जाता है यानी भारत ही ऐसा देश है जहां पूरी दुनिया के लिए सुख, शांति एवं संपन्नता की बात की जाती है।
वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था, मजदूरों की समस्या, आतंकवाद, नक्सलवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद एवं अन्य तरह की समस्याओं को लेकर जितने भी अंतर्राष्ट्रीय संगठन बने हैं, उन्हें यह सोचना एवं समझना होगा कि उनकी जिम्मेदारी विश्व के सभी छोटे-बड़े देशों की समस्याओं को सुलझाने की होनी चाहिए, न कि महाशक्तियों के इर्द-गिर्द घूमने एवं उनके वर्चस्व को बढ़ाने एवं बरकरार रखने की। वैश्विक स्तर पर अभी तक जो संदेश गया है वह यही है कि अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय संगठन महाशक्तियों के हितों की पूर्ति हेतु हैं। ऐसी स्थिति में इन संगठनों की यह जिम्मेदारी बनती है कि ये विश्व के सभी देशों के हित चिंतक बनें, इसी से वैश्विक सुख, शांति एवं संपन्नता का आधार बनेगा और इसी में पूरे विश्व का कल्याण निहित है।
ऐसा लगता है कि जिस प्रकार सृष्टि द्वारा रचित अंतरिक्ष सौरमंडल में ग्रहों, सितारों, नक्षत्रों इत्यादि के गतिमान रहने से प्रत्येक प्राणी, मानव जनजीवन, मस्तिष्क एवं धारणाओं को हर पल पूर्णतः प्रभावित करते रहते हैं। उसी प्रकार महाशक्तियों द्वारा रचित यह मायावी सौरमंडल प्रत्येक देश को, घटनाओं को या यूं कहिए कि संपूर्ण मानव जाति और प्राकृतिक संसाधनों को अपने अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के द्वारा न केवल प्रभावित करते रहते हैं बल्कि अपना वर्चस्व भी बनाए रखना चाहते हैं। यह एक कटु सत्य है और कभी-कभी तो ये महाशक्तियां प्रकृति सत्ता से टकराने का असफल प्रयास भी करती रहती हैं जो एक स्वार्थों से भरी विनाशकारी सोच का नतीजा है? द
– सिम्मी जैन
दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।