गुजरात के पाटण जिले में स्थित 11वीं सदी में बनी रानी की बावड़ी (Rani ki Bawdi), एक ऐसी आश्चर्यचकित कर देने वाली ऐतिहासिसक बावड़ी है जिसे 22 जून 2014 में युनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया था। ‘रानी की बावड़ी’ नामक इस धरोहर को एक प्रकार से मंदिर भी कहा जा सकता है। क्योंकि जल प्रंबधन का विकसित प्राचीन भारतीय तरीका जहां सारी दुनिया को हैरत में डालता है, जिसका जल लाखों लोगों के जीवन को सींचता है, उसी बावड़ी या जल मंदिर के अंदर मौजूद प्राचीन भारतीय शिल्प की उत्कृष्ट कलाकृतियों वाले इस मंदिर में देवी देवताओं की प्रतिमाओं का अभिषेक भी करता है।
पाटन के इस भूमिगत जल मंदिर में यानी रानी की बावड़ी (Rani ki Bawdi) में, शेषनाग के सहारे बैठे भगवान विष्णु की सैकड़ों मूर्तियों को देखने से लगता है जैसे वे यहां हजारों वर्षों से आराम करते हुए से लगते हैं। बड़ी ही बारीकी के साथ उकेरे गए भगवन विष्णु के विभिन्न स्वरुपों को यहां देखा जा सकता है। किसी तिलस्मी दुनिया-सी दिखने वाली यह बावड़ी या यूं कहें कि यह जल मंदिर, जल को अध्यात्म से जोड़ कर पर्यावरण संरक्षण का एक संदेश दे रहा है।
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इतिहासकारों और विद्वानों का कहना है कि यह बावड़ी (Rani ki Bawdi) केवल पानी को संरक्षित करने के लिए ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक महत्व के लिए भी बनाई गई थी और यह आज भी प्रासंगिक लगती है। क्योंकि इसकी खास बात यह है कि इसमें भगवान की विभिन्न प्रतिमाओं को उकेरकर इसके पानी की पवित्रता को बनाए रखने की अपील भी की गई है। इससे यह बात साफ है कि हमारे पूर्वजों की पानी के साथ जुड़ी भावनाओं का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
यदि हम इस ‘वाव’ यानी बावड़ी (Rani ki Bawdi) से संबंधित इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो पता चलता है कि इसका निर्माण रानी उदयमति ने 1063 में अपने पति और पाटण के राजा भीमदेव प्रथम की याद में करवाया था। रंग सूरी द्वारा 1304 ईस्वीं में लिखी गई ‘प्रबंध चिंतामणि‘ नामक पुस्तक में इस बात का प्रमाण मिलता है कि रानी उदयमति की मौत के पश्चात इस ‘वाव’ के निर्माण कार्य को करणदेव प्रथम के शासनकाल में पूरा किया गया था।
दरअसल, ‘वाव’ गुजराती भाषा का एक शब्द है जो बावड़ी या बावली के लिए प्रयोग किया जाता है। यानी बावड़ी या बावली ऐसे सीढ़ीदार कुंए या तालाब होते हैं जिनके पानी तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुँचा जा सकता है।
इस बावड़ी (Rani ki Bawdi) को दुनियाभर में 11वीं सदी की भारतीय भूमिगत वास्तु संरचना का एक अनूठा और सबसे विकसित तथा आश्चर्यचकित कर देने वाला एकमात्र उदाहरण माना गया है। भारतीय प्राचीन इतिहास में भूमिगत जल के संचय और उसके इस्तेमाल को इस खूबी के साथ किया जाता था कि व्यवस्था के साथ इसमें पवित्रता और सौंदर्य की झलक भी दिखती थी। भूमिगत जल के स्रोत के उपयोग और जल प्रबंधन प्रणाली के रूप में ‘रानी की बावड़ी’ का आज भी कोई जवाब नहीं।
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यूनेस्को की विश्व धरोहर समिति की 38वीं बैठक में इस बावड़ी को ‘विश्व धरोहर‘ की मान्यता प्रदान की गई। फरवरी 2013 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसे विश्व धरोहर सूची के लिए नामांकित किया था। यूनेस्को ने इस इमारत को प्राचीन भारतीय तकनीकी विकास और प्राचीन भारतीय इतिहास में इंजिनियरिंग का एक अनुठा और उत्कृष्ट उदाहरण माना है। रानी की ‘वाव’ या बावड़ी के माध्यम से जल-प्रबंधन, बेहतर व्यवस्था और भूमिगत जल के इस्तेमाल की खूबियों को एक बेहतर उदाहरण के साथ दर्शाया गया है।
जमीन के नीचे बनी यह बावड़ी (Rani ki Bawdi) करीब 64 मीटर लम्बी, 20 मीटर चैड़ी और 27 मीटर गहरी है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार, मूल रूप में यह बावड़ी सात मंजिला इमारत थी, लेकिन वर्तमान में इसकी पांच मंजिल को ही संरक्षित करके रखा जा सका है। क्योंकि भूगर्भ में होने वाले परिवर्तनों के कारण और इस क्षेत्र में समय-समय पर आने वाली बाढ़ के कारण इसमें मलबा भरता गया और इसकी गहराई कम होती चली गई थी। इसके अलावा इस क्षेत्र में बहने वाली पवित्र सरस्वती नदी जो कि अब लुप्त हो चुकी है उसके कारण यह बहुमूल्य धरोहर भी लगभग 700 सालों तक मलबे की परतों तले दबी रही। भारत की सरकारों के पक्षपात और संप्रदाय विशेष के चलते इसे संसार के अजूबे कहे जाने वाली संरचनाओं में भी स्थान नहीं दिलाया गया, अन्यथा यह एक ऐसी संरचना है जो आज के उन सभी सातों अश्चर्यों के बराबर आंकी जा सकती थी।
भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार भारत में पाई जाने वाली विभिन्न ऐतिहासिक बावड़ियों (Rani ki Bawdi) में यह बावड़ी तकनीकी और उपयोगिता के पैमाने पर सर्वोच्च विकास का एक सुन्दर नमूना है। क्योंकि यह काफी बड़ी और जटिल सरंचना वाली बावड़ी है। यह बावड़ी भारत के विभिन्न सीढ़ीदार कुओं की श्रेणी में भी खास स्थान रखती है। इसीलिए यूनेस्को ने इस बावड़ी को भूजल संसाधनों के प्रयोग की तकनीकी एवं जल प्रबंधन प्रणाली का एक अनोखा उदाहरण माना है।
– गणपत सिंह, खरगोन (मध्य प्रदेश)