अजय सिंह चौहान || भगवान शिव के सबसे पवित्र 12 ज्योतिर्लिंगों में प्रथम स्थान रखने वाले श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर को धर्म और आस्था के रूप में अत्यंत वैभवशाली और धन-संपदा से समृद्ध होने के कारण ही इतिहास में यह लगभग 17 बार मुगलों के द्वारा लूटा गया, तोड़ा गया और हर बार हिंदु राजाओं के द्वारा पूरी श्रद्धा के साथ इसका पुनर्निर्माण भी करवाया गया।
श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर (Somnath Jyotirling) का जितना बड़ा महत्व है उससे भी कहीं अधिक और बड़ा है इस मंदिर से जुड़ा इसका पिछले पंद्रह सौ सालों का वो इतिहास जो बताता है कि श्री सोमनाथ जी का यह मंदिर, प्रतीक है पुनर्निर्माण की उस शक्ति का जो हमेशा विनाश की शक्ति से भी अधिक पवित्र होती है। साथ ही यह भी बताता है कि संसार में हिंदू धर्म और धर्मस्थलों के अलावा शायद ही कोई धर्म ऐसा होगा जिसकी संस्कृति ने पिछले 1500 सालों तक मात्र पतन ही झेला हो, और झेली हों अनेकों प्रकार की विपत्तियां।
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर (Somnath Jyotirling) पर कई बार अफगानी लूटेरों ने हमले किए और हर बार सोने, चांदी हीरे-मोती और अन्य अनेकों कीमती रत्न लूट कर ले गए। लेकिन इस मंदिर पर जितने भी हमले हुए, उन सभी हमलों में महमूद गजनवी का वो हमला आज भी सबसे ज्यादा विभत्स और चर्चित है जो उसने सन 1024 ईसवी में किया था। वह हमला इतना भयानक था कि कलियुग के इस दौर में अब तक का वह सबसे भीषण और विभत्स हमला कहा जाता है, लेकिन, इतिहासकारों ने उसकी सच्चाई को छूपा कर एक मामूली हमला करार दे दिया।
प्रायोजित इतिहासकारों ने ये नहीं बताया कि उस समय वहां उपस्थित जो 25 हजार से भी अधिक श्रद्धालु और तीर्थयात्री दूर-दूर से पूजन-दर्शन करने आए हुए थे, उन सभी श्रद्धालुओं ने उस हमले का भरपूर विरोध किया। जिसके बदले में महमूद गजनवी ने उन सभी तीर्थ यात्रियों को घेर कर बड़ी ही निर्दयता से कत्ल करवा दिया और मंदिर में मौजूद अपार धन-संपदा को लूटने के बाद पवित्र शिवलिंग को भी अपवित्र और खंडित करवा दिया। इस हमले में उसने मंदिर को तो डहाया ही, साथ ही साथ सैकड़ों महिलाओं और बच्चों को भी गुलाम बनाकर वह अपने साथ अफगानिस्तान ले गया, जहाँ गुलामों के बाजार में उनकी नीलामी करवाई।
इसमें सबसे खास बात यह रही कि, यह मंदिर इतनी बार नष्ट होने और लूटने के बाद भी हमेशा धन-संपदा से समृद्ध होता रहा। प्राचीनतम इतिहास के अनुसार, सतयुग में सोमराज ने यहां स्वर्ण या सोने का मंदिर बनवाया था। त्रेता युग में स्वयं रावण ने यहां चांदी का मंदिर बनवाया था। और कहा जाता है कि द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने यहां चंदन की लकड़ी से सोमनाथ जी का मंदिर बनवाया था। नवीनतम इतिहास के प्रारंभ में भी यहां अति भव्य मंदिर मौजूद था। उस मंदिर में 56 स्वर्ण स्तंभ थे, और संपूर्ण मंदिर में अनगिनत कीमती रत्न और हीरे जड़े हुए थे।
श्री सोमनाथ मंदिर के सदैव वैभवरणूर्ण रहने का कारण यह था कि यहां से उस समय में भी यहां का वेरावल बंदरगाह भारत के विश्व व्यापार का केन्द्र हुआ करता था। वेरावल के बंदरगाह से व्यापार के लिए उत्तरी अफ्रिका और इरान के लिए समुद्री मार्गों का प्रयोग किया जाता था।
अलबेरुनी और मार्कोपोलो के अनुसार श्री सोमनाथ का यह मंदिर अति समृद्ध था। इसके रखरखाव के लिए दस हजार गांव थे। ज्योतिर्लिंग के अभिषेक के लिए जल गंगा नदी से और कमल पुष्प कश्मीर से आते थे। इसके गर्भगृह में हीरे जवाहरत की भरमार थी। मंदिर में सोने की अनेकों मूर्तियां थीं। एक हजार से भी अधिक पूजारी भगवान की सेवा में रहते थे।
ईसा पूर्व से ही यह मंदिर धर्म और अध्यात्म का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। इस मंदिर को लेकर मध्य युग का शुरूआती इतिहास स्पष्ट नहीं है लेकिन कुछ इतिहासकार कहते हैं कि उस समय के मंदिर की जीर्णशीर्ण अवस्था को देखते हुए सन 649 ईसवी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने उसी स्थान पर एक नए और भव्य मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था।
आठवीं सदी के प्रारंभ में सिन्ध की ओर से आये एक अरबी सुल्तान जुनायद ने इस मंदिर में लुटपाट के इरादे से अपनी एक विशाल सेना भेजी थी। उसकी सेना ने न सिर्फ इस मंदिर को लुटा बल्कि उसमें भारी उत्पात मचाकर तोड़फोड़ भी की। जबकि इस लुटपाट के बाद प्रतिहार राजा नागभट्ट ने सन 815 में उसका पुनर्निर्माण करवाया दिया। और जल्दी ही यह मंदिर एक बार फिर से धन-धान्य से संपन्न हो गया और उस मंदिर की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी।
एक फारसी विद्धान जिसका नाम अल-बरुनी था, उसने इस मंदिर की भव्यता और इसके धन-धान्य से संपन्न होने का विस्तृत विवरण अपने यात्रा वृतान्त में लिखा। अल-बरुनी के यात्रा वृतांत से प्रभावित होकर महमूद गजनवी ने सन 1026 ईसवी में अपने भारीभरकम दलबल के साथ श्री सोमनाथ मंदिर पर लूटापाट के इरादे से हमला कर दिया।
‘किताबुल हिंद’ यानी ‘हिंद की किताब’ नामक किताब लिखने वाले अल-बरुनी का अधिकतर समय भारत में ही बीता और वह खुद भी महमूद गजनवी के अत्याचारों से त्रस्त था। संभवतः इसलिए उसने कहीं भी इस अत्याचारी सुल्तान के गुण नहीं गाए और भारत पर एक बेहद स्वतंत्र किताब लिखी। लेकिन एक धर्मविशेष का होने के कारण ही उसने हिंदूधर्म के प्रति कुछ दूरी भी बना कर रखी थी।
महमूद गजनवी के इतिहास पर नजर डालने पर पता चलता है कि अफगानिस्तान के गजनी देश के सुल्तान गजनवी ने दौलत की चाह में सन 1,000 से 1,027 के बीच भारत पर 17 बार बड़े हमले किए। और इन हमलों के पीछे गजनवी का मकसद यही था कि सोने की चिढ़िया कहे जाने वाले देश की दौलत को लूट कर उसे कमजोर कर दिया जाय और फिर वहां इस्लाम का प्रचार किया जाय, जिससे कि अपने देश की सीमाओं का विस्तार किया जा सके।
उतबी, जो गजनवी का समकालीन इतिहासकार था, उसने किताब-अल-यामिनी नाम की अपनी एक पुस्तक में गजनवी के द्वारा सोमनाथ मन्दिर पर किए गए भीषण आक्रमणों का जिक्र किया। किताब-अल-यामिनी से यह भी मालुम होता है कि मंदिर कितना आलिशान था और इसमें कितने कीमती रत्नों का प्रयोग किया गया था। मंदिर में लगे दरवाजे भी इतने महंगे थे कि लुटेरा गजनवी उन्हें उखड़वाकर अपने साथ गजनी ले गया था।
यूं तो, सोमनाथ मंदिर (Somnath Jyotirling) पर मुगलों ने कई बार हमले किए। लेकिन, इस मंदिर पर हुए हमलों में महमूद गजनवी का वह हमला सबसे ज्यादा भयानक रहा जो उसने सन 1024 ईसवी में किया था। इस हमले में वह अपने पांच हजार सैनिकों के साथ आक्रमण करने आया था। जिस समय उसने मंदिर पर हमला किया था उस दौरान वहां लगभग 25 हजार सनातन श्रद्धालू और तीर्थयात्री मौजूद थे। उन सभी श्रद्धालुओं ने उस हमले का विरोध किया। लेकिन क्योंकि वे सभी श्रद्धालु वहां पूजा-पाठ करने पहुंचे थे इसलिए एक दम निहत्थे थे, उसी का फायदा उठाकर महमूद गजनवी ने उन सभी निहत्थे तीर्थ यात्रियों को घेर कर कत्ल करवा दिया और मंदिर की अपार धन दौलत को लूटने के बाद पवित्र शिवलिंग को भी खंडित करवा दिया। इस हमले में उसने वहां भारी तोड़-फोड़ माचाई और मंदिर परिसर के अन्य कई मंदिरों को भी तुड़वा डाला।
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वहां मौजूद सैकड़ों स्त्रियों एवं बच्चों को गुलाम बनाकर महमूद गजनवी अपने साथ अफगानिस्तान ले गया, जहाँ गुलामों के बाजार में उनकी नीलामी करवा दी। उतबी के अनुसार, उस आक्रमण के दौरान गजनवी ने सोने, चांदी और अनेकों कीमती रत्नों के रूप में अपनी कल्पना से भी कहीं ज्यादा धन-सम्पदा लूटी थी। जितना सोना, चांदी और अन्य किमती रत्न ऊंटों और घोड़ों पर लादा सकता था ले गया और बाकी वहीं छौड़ना पड़ा।
इस भयंकर लूटपाट और रक्तपात के बाद गजनवी कच्छ के रण क्षेत्र से होता हुआ वापस अफगानिस्तान जाने के लिए निकल पड़ा। लेकिन जब इस कत्ले-आम की खबर उस क्षेत्र के दूसरे हिन्दू राजाओं तक पहुंची तो उनका गुस्सा भड़क उठा। थार के राजपूत शासक भोज ने अफगानिस्तान लौटते हुए गजनवी को सबक सिखाने का निश्चय किया। लेकिन गजनवी को इस बात की खबर लग गई और वह रास्ता बदलकर कच्छ के रन से सिंध की ओर होता हुआ अफगानिस्तान की ओर बढ़ गया।
उधर सिंध के जाटों को भी इस रक्त-पात की जानकारी मिल चुकी थी और साथ ही यह भी पता लग चुका था कि महमूद गजनवी रास्ता बदलकर सिंध के रास्ते गजनी वापस लौट रहा है। ऐसे में सिंध के जाट शासक भीमसेन ने गजनवी की सेनाओं की घेराबंदी कर उस पर जबरदस्त हमला किया। उस हमले के दौरान गुलाम बनाये गये कुछ बच्चों और स्त्रियों को छुड़वा लिया गया, लेकिन बावजूद इसके वह अन्य कई बच्चों और स्त्रियों को ले जाने में सफल रहा।
इतिहासकारों का कहना है कि भीमसेन की सेना के अचानक प्रहार से जान बचाकर भागती गजनवी की सेनाओं का दूर तक पीछा भी किया गया और उनमें से कई लुटेरों को मौत के घाट उतार दिया था। जाटों के उस भीषण आक्रमण ने गजनवी की ताकत को ऐसा नुकसान पहुंचाया कि उसकी बची-कुची और अधमरी सेना को जान बचाकर भागना पड़ा, लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि वह उस खजाने को लेकर जाने में कामयाब रहा। जबकि उतबी ने अपनी पुस्तक में उसस घटना को ठीक इसके उलट और हैरान कर देने वाली घटना बताया है। उसने लिखा है कि जब, महमूद गजनवी की सेना जो सिंध से होकर गजनी की ओर लौट रही थी, सिंध क्षेत्र में वहां के जाट लूटेरों ने उसे रोककर लूटने की कोशिश की थी।
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उस हमले के बाद गजनवी के हाथों तहस-नहस किए गए श्री सोमनाथ मंदिर को परमार राजा भोज और सोलंकी राजा भीमसेन ने मिलकर सन 1026 से सन 1042 के बीच फिर से एक नया रूप दिया। इसके बाद सन 1093 में महाराज कुमारपाल ने इसमें कुछ बदलाव कर इसा जिर्णोद्धार करवाया और इसकी पवित्रता और प्रतिष्ठा में भरपूर सहयोग दिया।
अपनी अपार धन-संपदा और कीमती आभूषणों के लिए यह मंदिर हमेशा से ही अन्य मंदिरों के मुकाबले ज्यादा प्रसिद्ध रहा है, और शायद यही कारण रहा है कि इस मंदिर पर मुगलों की बुरी नजर बार-बार पड़ती रही। इस मंदिर का एक बहुत ही बड़ा दुर्भाग्य रहा कि यहां बार-बार आक्रमण होते रहे, मंदिर टूटता रहा और बार-बार बनता भी रहा। ऐसे में कहा जा सकता है कि सोमनाथ मंदिर, प्रतीक है पुनर्निर्माण की उस शक्ति का जो हमेशा विनाश की शक्ति से अधिक पवित्र होती है।
सोमनाथ मंदिर के अलावा इस संसार में शायद ही कोई दूसरा ऐसा धर्मस्थल होगा जिसने पिछले 1500 वर्षों में बार-बार लूटा जाता रहा हो और जिसने 1500 सालों तक मात्र पतन ही झेला हो, और झेली हों अनेकों प्रकार की विपत्तियां। तभी तो भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि यह धर्म और इसके मंदिर, प्रतीक है पुनर्निर्माण की उस शक्ति का जो हमेशा विनाश की शक्ति से अधिक पवित्र होती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्यों सोमनाथ मन्दिर बार-बार ध्वस्त होता रहा? इतिहास गवाह है कि इस मंदिर ने अनेकों उतार-चढ़ाव देखे हैं। अनेकों अक्रांताओं की कु-दृष्टि इस पर पड़ी, कई लूटेरों ने यहां उत्पात मचाया, कई बार इस मंदिर में रक्तपात हुआ। अनेकों बार यह ज्योतिर्लिंग अपवित्र भी हुआ और खंडित भी हुआ। कई बार मुल मन्दिर के ध्वस्त होने के कारण ज्योतिर्लिंग की पूजा बन्द करवा दी गई।
अब तक यह मंदिर लगभग 17 बार बड़े पैमाने पर नष्ट किया गया, और हर बार इसका पुनर्निमाण करवाया गया। जानकारों का मानना है कि प्राचीन सोमनाथ मन्दिर की भौगोलिक स्थिति और उसके वास्तुदोष के कारण ही जितनी बार भी इस मन्दिर का निर्माण हुआ उसके कुछ सालों बाद ही मन्दिर ध्वस्त भी होता रहा।
पवित्र सोमनाथ मंदिर हिंदू धर्म का शाश्वत तीर्थस्थान है। इसीलिए कहा जाता है कि सोमनाथ मंदिर, प्रतीक है पुनर्निर्माण की उस शक्ति का जो हमेशा विनाश की शक्ति से अधिक पवित्र होती है।