अजय सिंह चौहान || माता सुंधा देवी यानी “सुंधा माता” (Sundha Mata Shaktipeeth Temple in hindi) का पौराणिक एवं प्राचीन तीर्थस्थल राजस्थान के जालौर जिले की भीनमाल भीनमाल तहसील से करीब 35 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। अरावली पर्वत श्रृंखलाओं में “सुंधा” नाम के एक पर्वत पर विराजित यह प्राचीन मंदिर देश के कुछ सबसे बड़े और विशेष धार्मिक स्थलों में से एक है। माता का यह मंदिर सुंधा पर्वत या सुंधा गिरी की करीब 1220 मीटर ऊंचाई पर स्थापित है। यहां की प्राकृतिक छटा, पर्वत श्रृंखलाओं पर फैली हरियाली, पास ही में स्थित रेत का पहाड़ और प्राकृतिक झरना इस स्थान की सुंदरता को और अधिक बढ़ा देते हैं।
सुंधा पर्वत के बारे में कहा जाता है कि यह पर्वत एक विशेष प्रकार की मध्यम सुगंध से युक्त है और वर्षाकाल के दौरान इसपर पाये जाने वाली प्राकृतिक जड़ी-बुटियों से ही यह सुगंध प्राप्त होती है, जिसके कारण स्थानीय भाषा में यह सुगंध से ‘सुंधा’ (Sundha Mata Shaktipeeth Temple in hindi) कहलाने लगा और इस पर विराजित माता को सुंधा माता के नाम से पहचान मिलती गई। हालांकि, सुधा माता को मूल रूप से यहां आज भी चामुंडा माता के रूप में ही जाना जाता है।
सुंधा माता का यह पौराणिक एवं प्राचीन तीर्थस्थल राजस्थान के जालौर जिला मुख्यालय से करीब 72 किलोमीटर एवं तहसील तथा प्राचीन नगर भीनमाल से करीब 35 किलोमीटर और रानीवाड़ा तहसील से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर दाँतलावास नामक एक गाँव के पास स्थित है।
सुंधा माता (Sundha Mata Shaktipeeth Temple in hindi) के दर्शनों के लिए आने वाले श्रद्धालुओं में सबसे अधिक संख्या गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश जैसे आस-पास के क्षेत्रों के निवासियों की देखी जाती है। जबकि कुछ विशेष अवसरों पर, जैसे कि चैत्र और शरदीय नवरात्र के दिनों में यहां देश के अन्य कई राज्यों से आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या हजारों ही नहीं बल्कि लाखों में हो जाती है।
नवरात्र के दौरान यहां पर मेले के साथ-साथ गरबा उत्सव का भी आयोजन किया जाता है जिसमें स्थानीय संस्कृति और परंपरा की झलक देखी जा सकती है। इस दौरान यहां विदेशी पर्यटक भी भारी संख्या में आते हैं।
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, सुंधा माता यानी चामुंडा माता, सप्त मातृकाओं, यानी अपनी सात शक्तियों समेत यहाँ पर अवतरित हुईं थीं, इसीलिए माता के इस संपूर्ण मंदिर स्थल और सुंधा पर्वत या सुंधा गिरी का विशेष पौराणिक महत्व है। यही कारण है कि यहां आने वाले सभी श्रद्धालु अपने को धन्य मानते हैं। सुंधा नामक इस पर्वत के विषय में जानकार मानते है कि त्रिपुर नामक राक्षस का वध करने से पहले माता ने यहां स्वयं तप किया था।
पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु के चक्र से कट कर, माता सती की मृत देह के अंग, जहां-जहां भी गिरे थे वहां-वहां शक्तिपीठों की स्थापना होती गई। और सुंधा पर्वत पर स्थित माता सुंधा (Sundha Mata Shaktipeeth Temple in hindi) के इस मंदिर के बारे में भी यही मान्यता है कि यहां माता सती का सिर गिरा था, इस कारण से इस शक्तिपीठ को ‘अघटेश्वरी’ के नाम से पहचाना जाता है।
इस स्थान को अनेक सिद्ध और प्रसिद्ध ऋषि-मुनियों की तपोभूमि के रूप में भी जाना जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो वर्ष 1576 में हुए हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मेवाड़ शासक एवं इतिहास पुरुष महाराणा प्रताप ने अपने कष्ट के दिनों में सुंधा माता (Sundha Mata Shaktipeeth Temple in hindi) की शरण में आकर शक्ति की आराधना की थी। इसके अलावा कुछ अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार तेरहवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में भी इस क्षेत्र में राजनीतिक उठापटक और विदेशी आक्रांताओं के साथ युद्ध होते रहे।
सुंधा माता के मंदिर परिसर में तीन ऐसे ऐतिहासिक शिलालेख भी हैं जो इसके इतिहास को बताते हैं। इनमें से 1262 ईसवी के एक शिलालेख पर चैहान की जीत और परमार के पतन का वर्णन है। दूसरा शिलालेख 1326 ईसवी का है, जबकि तीसरा शिलालेख 1727 ईसवी का बताया जाता है।
सुंधा माता के इस मंदिर की संरचना से संबंधित कुछ ऐतिहास तथ्यों के अनुसार यहां से प्राप्त एक शिलालेख से पता चलता है कि जालौर के चौहान नरेश चाचिगदेव (1257-1282) ने इस देवी मंदिर में मंडप का निर्माण करवाया था। यानी इस शिलालेख से स्पष्ट होता है कि चाचिगदेव द्वारा बनवाये गये मंडप से पहले भी यहाँ चामुंडा माता का मंदिर स्थापित था और इसे ‘अघटेश्वरी’ नाम से पहचाना जाता था।
इसके अलावा, यहाँ स्थापित शिलालेख में चाचिगदेव के पूर्वजों द्वारा सुन्धामाता को जालौर के राजवंश की कुलदेवी के तौर पर भी बताया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि चाचिगदेव ने तो इस मंदिर का मात्र पुर्ननिर्माण या फिर जिर्णोद्धार ही करवाया था, जबकि माता तो यहां अनादिकाल से विराजित हैं, और स्थानीय लोगों का यही मुख्य आधार है इसे एक शक्तिपीठ के रूप में मानने का। हालांकि, कुछ विद्ववान इस स्थान को शक्तिपीठ नहीं बल्कि एक सिद्ध पीठ ही मानते।
करीब 900 वर्ष पुराने इस मंदिर में जैसलमेर के पीले बलुआ पत्थरों का प्रयोग किया गया है। मंदिर की वास्तुकला अति सुन्दर है। स्तंभों पर की गई महीन कारीगरी आबू के दिलवाड़ा जैन मंदिरों के स्तंभों से मिलती-जुलती लगती है। मंदिर परिसर दो अलग-अलग भागों में विभाजित है। इसके एक खंड में भूभुर्वः स्वेश्वर महादेव का मन्दिर है जिसमें शिवलिंग स्थापित है, जबकि दूसरे भाग में सुंधा माता यानी माता चामुंडा स्वयं विराजमान हैं।
इस मंदिर में विशेष रूप से वैसे तो माता के सिर की पूजा की जाती है, किन्तु प्रतीक के तौर पर यहां एक पत्थर पर उकेरी गई माता चामुंडा की दिव्य प्रतिमा ममतामयी नजर आती है। माता चामुंडा की यह प्रतिमा महिषासुर मर्दिनी के स्वरूप में हाथों में खड्ग और त्रिशूल धारण किये हुए है।
सुंधा माता (Sundha Mata Shaktipeeth Temple in hindi) के मंदिर परिसर में ऐसी और भी कई प्राचीनकाल की प्रतिमाएं मौजूद हैं जिनका अपना महत्व तथा इतिहास है। माना जाता है कि ये प्रतिमाएं आस-पास के कुछ ऐसे मंदिरों से लाई गई थीं जिनपर मुगलों के दौर में भीषण आक्रमण ओर लूटपाट हुए थे, जिसके बाद से उन मंदिरों का अस्तित्व अब लगभग समाप्त हो चुका है। आक्रमणों के उन दिनों में स्थानीय लोगों ने इन प्रतिमाओं को छूपा कर रख लिया था। ऐसी ही प्रतिमाओं में से भगवान शिव की एक दुर्लभ प्रतिमा यहां स्थित है जो एक उत्कृष्ठ कलाकृति मानी जाती है। इस प्रतिमा में भगवान शिव के दोनों हाथों में त्रिशूल दर्शाया गया है, जबकि उनके पिछले हाथों में वीणा धारण किए हुए हैं।
सुंधा माता को अघटेश्वरी भी कहा जाता है। अघटेश्वरी का अभिप्राय है- एक ऐसी देवी जिसका यहां पर सिर तो है, लेकिन, शरीर का बाकी हिस्सा यानी घट या धड़ नहीं है। इसलिए यहां माता के सिर की ही पूजा की जाती है। जबकि मान्यता है कि माता चामुंडा का धड़ यहां से करीब 135 किलोमीटर दूर उदयपुर जिले की कोटड़ा तहसील के एक मंदिर में है, तथा चरण यहां से करीब 85 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जालौर जिले में ‘खेड़े की जोगणी’ नाम के एक प्रसिद्ध मंदिर में पूजे जाते हैं। जालौर के जिला मुख्यालय शहर में स्थित सुंदेलाव तालाब के किनारे पर स्थित मंदिर जालौर शहर की स्थापना से भी पहले का बताया जाता है।
सुंधा माता के इस मंदिर के बारे में बताया जाता है कि वर्ष 1976 तक यहां चामुंडा माता को पशु बलि और मदिरा अर्पण करने की प्रथा भी चल रही थी, लेकिन, वर्ष 1976 में यहाँ ‘‘श्री चामुण्डा माता ट्रस्ट सुन्धा पर्वत’’ बनने के बाद मदिरा एवं बलि प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया गया। उसके बाद से यह तीर्थ पूर्ण रूप से सात्विक तीर्थ बन चुका है।
जो श्रद्धालु 1220 मीटर की ऊंचाई पर स्थित सुंधा माता के भवन तक चढ़ने में समर्थ नहीं हैं उनके लिए यहां रोपवे की सुविधा भी दी गई है। यह रोपवे राजस्थान में लगने वाला पहला रोपवे बताया जाता है। हालांकि, अधिकतर श्रद्धालु यहां सीढ़ियों का प्रयोग करते देखते जाते हैं। सीढ़ियों से चढ़ने वाले श्रद्धालुओं की सुविधा को ध्यान में रखते हुए ट्रस्ट की ओर से माता वैष्णदेवी मंदिर मार्ग की तर्ज पर यहां भी अन्य सुविधाओं के अलावा, मौसम की मार से बचने के लिए अधिक से अधिक रास्ते पर छांव का प्रबंध किया गया है।
पर्वत की ऊंचाई पर स्थित मंदिर परिसर एक दम खुला और स्वच्छ नजर आता है। भवन के तीनों तरफ अरावली की पहाड़ियां नजर आतीं हैं जबकि चैथी दिशा में दो पहाड़ियों के बीच से भवन तक आने-जाने का एक खुला और व्यवस्थित मार्ग है। इसी मार्ग के साथ-साथ एक प्राकृतिक झरना भी दिख जाता है।
पहाड़ी पर चढ़ाई शुरू करने से पहले एक विशाल और कलात्मक तोरणद्वार से होकर जाना होता है। तोरणद्वार से प्रवेश करने के बाद पक्की सीढ़ियों से चढ़ाई शुरू हो जाती है। जो लोग रोपवे की सुविधा लेना चाहते हैं उनके लिए इसी द्वार के पास रोपवे भी नजर आ जाता है।
सुंधा पहाड़ी की अनेकों छोटी-बड़ी चट्टानों के आस-पास इधर-उधर सैकड़ों की संख्या में ऐसी छोटी-छोटी प्रतिमाएं देखने को मिल जाती हैं जिनको खंडीत होने के बाद श्रद्धालु अपने घरों से लाकर यहां रख देते हैं, ताकि उनका अनादर होने से बच जाये।
स्थानीय भाषा एवं बोली – सुंधा माता का यह मंदिर राजस्थान के जालौर जिले में स्थित है। संपूर्ण जालौर जिला एवं इसके आसपास के क्षेत्रों में मुख्य रूप से मारवाड़ी, राजस्थानी एवं हिंदी भी अच्छीखासी बोली जाती है, इसलिए यहां उत्तर भारत से आने वाले दर्शनार्थियों को भाषा की कोई परेशानी नहीं होती।
भोजन की व्यवस्था – सुंधा माता के दर्शन करने आने वाले श्रद्धालुओं के लिए मंदिर ट्रस्ट के द्वारा संचालित भोजनालय में बहुत ही कम दामों पर भरपेट भोजन की थाली मिल जाती है। इसके अलावा यहां रात्रि विश्राम के लिए सामुदायिक भवनों की सुविधा भी अच्छी है। पहाड़ी पर चढ़ने से पहले और पहाड़ी पर चढ़ने के बाद भी यहां चाय-नाश्ते के अलावा अन्य प्रकार की छोटी-छोटी दुकानें दिख जाती हैं।
सुंधा माता मंदिर का मौसम – सुंधा माता मंदिर के दर्शन करने जाने का सबसे अच्छा मौसम अक्टूबर से मार्च महीने के बीच का माना जाता है। जबकि अप्रैल से लेकर सितंबर माह तक यहां भयंकर गर्मी का प्रकोप रहता है। इसलिए इस दौरान यहां परिवार के छोटे बच्चों एवं बुजुर्गों के साथ जाने में परेशानी हो सकती है।
सुंधा माता मंदिर तक कैसे जायें –
सुंधा माता (Sundha Mata Shaktipeeth Temple in hindi) का यह पौराणिक एवं प्राचीन तीर्थस्थल राजस्थान के जालौर जिला मुख्यालय से करीब 72 किमी, जोधपुर से 200 कि.मी., माउंट आबू से 170 किलोमीटर तथा अहमदाबाद 255 कि.मी. की दूरी पर है। इसके अलावा भीनमाल तहसील से इसकी दूरी करीब 35 किलोमीटर है।
सड़क मार्ग से – यदि आप सुंधा माता मंदिर तक अपने निजी वाहनों से पहुंचना चाहते हैं तो यहां फ्री पार्किंग की सुविधा उपलब्ध है। रोजवेड बसों के द्वारा जाना चाहते हैं तो उसके लिए राजस्थान और गुजरात के कुछ प्रमुख शहरों के बीच चलने वाली रोडवेज तथा निजी बसों चलती हैं।
रेल मार्ग से – रेल यात्रा के द्वारा सुंधा माता मंदिर तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं और पर्यटकों को जालौर रेलवे स्टेशन के लिए जोधपुर डिवीजन नेटवर्क और मुंबई तथा गुजरात से ट्रेन ले सकते हैं।
हवाई मार्ग से – जालौर में स्थित सुंधा माता के इस मंदिर के लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डा यहां से करीब 200 किलोमीटर दूर जोधपुर में स्थित है। दूसरा 230 कि.मी. दूर उदयपुर में है।