यह वैदिक युग की बात है। अश्विनी कुमार दो भाईयों ने अनेक विद्याएं अर्जित कर ली थीं। इस कारण तीनों लोकों में उनकी बहुत ख्याति थी। एक बार उन्होंने मधुविद्या को भी प्राप्त करने का निश्चय किया। जब देवराज इन्द्र को उनके इस निर्णय का पता चला, तो वह अत्यंत व्याकुल हो उठा। उसने त्रिलोक में एलान कर दिया कि कोई भी अश्विनी कुमारों को मधुविद्या प्रदान न करे। यदि किसी ने ऐसा किया, तो उसका शीश धड़ से अलग कर दिया जायेगा।
उस समय दधीचि निर्भीक ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों में गिने जाते थे। इसीलिए दोनों कुमार इन्हीं के आश्रम में पहुंचे। ऋषि के सम्मुख होकर दोनों ने हाथ जोड़कर मधुविद्या प्रदान करने की प्रार्थना की। साथ ही उन्हें इन्द्र की घोषणा के विषय में बताया ऋषि दधीचि ने कहा – जिज्ञासुओं को निस्वार्थी और निर्भय होकर विद्या प्रदान करना ऋषि का कर्तव्य है, जिसका मैं पालन करूंगा। फिर चाहे इस कर्तव्य पालन में मेरे प्राण ही क्यों न चले जाएं।’ ‘नहीं ऋषिवर, इस समस्या से उबरने की एक उक्ति हमारे पास है। यदि आप स्वीकार करे तो’ तुरंत कुमारों ने कहा। उन्होंने भी उसके लिए स्वीकृति दे दी। तत्पश्चात दोनों कुमारों ने ऋषि दधीचि का सिर काट कर उसके स्थान पर एक घोडे़ का सिर लगा दिया।
कथा बताती है कि दधीचि ने इसी अश्व-शीश में दोनों कुमारों को मधुविद्या प्रदान की। जैसे ही इन्द्र को यह पता चला, तो ब्रह्मऋषि उसके कोप का भाजन बने। उसने तत्क्षण अपने दिव्यास्त्र द्वारा उन पर अमोघ प्रहार किया। ऋषि के धड़ पर लगा घोड़े का सिर खण्ड-खण्ड होकर धरा पर आ गिरा। इन्द्र तो अपनी कोपाग्नि बरसा कर चला गया। अब अश्विनी कुमारों ने अपनी युक्ति के अगले चरण को अंजाम दिया। ऋषि दधीचि के सुरक्षित रहे हुए शीश को पहले की ही भांति उनके धड़ से संयुक्त कर दिया।
यह थी एक पौराणिक कथा। इससे पढ़कर अधिकांश को तो यह मनोरचित जगत कि एक कपोल कथा लगी होगी। पर हम आपको बताना चाहेंगे कि यह कथा मनघडंत नहीं, अपितु वैदिक कालीन वैज्ञानिकता को दर्शाती एक सत्य घटना है। उस समय कि विकसित शल्य चिकित्सा पर प्रकाश डालता एक अनुपम उदाहरण है। वस्तुतः अश्विनी कुमार उच्चकोटि के सर्जन थे।
वैदिक युग के उस चमत्कार को वर्तमान वैज्ञानिक शैली में भ्मंक जतंदेचसंदजंजपवद (शीश प्रत्यारोपण) कहा जा सकता है। इस प्रकार की शल्य क्रिया के एक-दो नहीं, बल्कि कई उदाहरण वेद-पुराणों में मिल जाते हैं। पर आज यदि यह कर पाना हमें अंधविश्वास जनित लगता है, तो इसका मात्र एक ही कारण है – आधुनिक विज्ञान की अपरिपक्वता! अर्थात वर्तमान शल्य चिकित्सा अभी उतनी विकसित नहीं हो पाई है जितना वैदिक काल में थी। शीश प्रत्यारोपण जैसी जटिल सर्जरी अभी दूर-दूर तक हमारी सोच में भी नहीं है।
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केवल प्रत्यारोपण विधि ही नहीं, वैदिक युग में ऐसी अनेकों उत्कृष्ट शल्य क्रियाएं की गयी थीं। ये क्रियाएं आज भी आधुनिक विज्ञान के उन्नत काल में, हमारे लिए चुनौती बनी हुई हैं। उदाहरणार्थ एक वृद्ध को पुनः युवा जैसा बना देना। आधुनिक शल्य विज्ञान भी कीमियागीरी, प्लास्टिक सर्जरी जैसी चिकित्सकीय युक्तियों के सहारे चेहरे की झुर्रियों को हटाने की भरसक कोशिश कर रहा है। लेकिन इन सभी प्रयासों एवं प्रसाधनों के बावजूद भी हमारा चिर युवा रहने का सपना अभी तक सपना ही बना हुआ है। पर वैदिक युग की अति विकसित शल्य चिकित्सा ने इस स्वप्न को भी साकार कर दिखाया था।
उस युग में एक ऋषि हुए हैं च्यवन। पौराणिक ग्रन्थ बताते हैं कि जब वे वृद्धावस्था की मार से अत्यंत जीर्ण शीर्ण हो गए, तो उनकी युवा पत्नी सुकन्या ने अश्विनी कुमारों का आह्वान किया। उनसे प्रार्थना की कि वे उसके पति को पूर्ववत यौवन रूप प्रदान करें। ऋषि पत्नी के आग्रह पर अश्विनी कुमारों ने च्यवन ऋषि की सर्जरी की।
ऋग्वेद में उल्लेख है- ‘जुजुरुशो नासत्योत वव्रिं प्रामुन्च्तम द्रापीमिव च्यावानात’ अर्थात हे अश्वानाों! तुमने अति वृद्ध च्यवन ऋषि के शरीर से कवच उतार देने के समान बुढापे की चमड़ी या झुर्री उतार कर उन्हें पुनः तरुण बना दिया। यही कारण है कि आज एक ऐसे स्वास्थ्य टाॅनिक का नाम ’च्यवनप्राश’ रखा गया है, जिसके लिए प्रचलित है कि वह बढ़ती उम्र के लोगाों को भी यौवन की सी शक्ति देता है। है न अपूर्व वैज्ञानिकता! हैरत में डाल देने वाली! और कितने उदाहरण दें?
सुश्रुत संहिता जिसे एक उपवेद माना जाता है, वह तो अपने आप में शल्य विज्ञान का एक एन्साइक्लोपीडिया ( विश्व कोष) है। इसमें पथरी, फूला, ट्यूमर, हर्निया, कान, नाक, आंख आदि 300 प्रकार के ऑपरेशन और 42 प्रकार की शल्य विधियों का विस्तृत वर्णन है। कैसे चिकित्सागृह (Hospitals) होने चाहिए, औजारों को किस प्रकार विसंक्रमित (Sterlization) कर सकते हैं, यहाँ तक कि एक चिकित्सक में क्या गुण होने चाहिए- इन सब का भी अति उत्तम विश्लेषण इस संहिता में किया गया है ।
सच में हमारे वेद और पुराण ज्ञान के महासागर हैं। हमारे अस्तित्व का ऐसा कौन सा पक्ष है जिसकी मीमांसा वेदों में नहीं मिलती। ये एक ज्ञानी भक्त के लिए भक्ति का सरोवर हैं, नीतिज्ञों के लिए नीतिग्रंथ, तो शोधार्थियों के लिए वैज्ञानिक सूत्रकोष है। यदि आज हम ‘Back to Vedas’ उक्ति को चरितार्थ कर लेंगे तो निःसंदेह सम्पूर्ण विश्व में एक युगान्तरकारी क्रांति आ सकती है। न केवल हमारा धार्मिक एवं व्यावहारिक जीवन परिष्कृत हो सकता है, बल्कि आधुनिक विज्ञान भी इससे एक नया प्रकाश प्राप्त कर सकता है ।
– महामंडलेश्वर स्वामी सहज प्रकाश सरस्वती