अजय सिंह चौहान | पवित्र 51 शक्तिपीठों में से, एक भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्य, त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से करीब 55 किलोमीटर की दूरी पर, दक्षिणी त्रिपुरा में, प्राचीनकालीन उदयपुर शहर से करीब 5 किमी की दूरी पर, राधा किशोर नाम के एक छोटे से कस्बे में श्री त्रिपुरसुंदरी देवी (Tripur Sundari Mata Shaktipeeth Temple in Tripura) का एक ऐसा शक्तिपीठ मंदिर जो जागृत शक्तिपीठ मंदिरों की श्रेणी में आता है।
शास्त्रों और मान्यताओं के अनुसार इस स्थान पर माता सती का दाहिना पैर, यानी दक्षिण पाद गिरा था। ये शक्तिपीठ मंदिर गोमती नदी के किनारे की एक कछुए के आकार वाली पहाड़ी पर स्थित है। माताबाड़ी, यानी माता के इस शक्तिपीठ मंदिर की सबसे बड़ी खासियत है कि पुराणों में इस पीठ को जागृत शक्तिपीठ होने के साथ-साथ कूर्म पीठ के रूप में भी माना है। यहां देवी को त्रिपुरसुंदरी और भगवान शिव को त्रिपुरेश कहा जाता है।
इसके अलावा, त्रिपुरसुंदरी माता के इस मंदिर (Tripur Sundari Mata Shaktipeeth Temple in Tripura) को क्षेत्रिय स्तर पर एक विशेष तंत्र पीठ के रूप में भी जाना जाता है। इन सबसे अलग, इस शक्तिपीठ को लेकर मान्यता है कि इसे दस महाविद्याओं में भी माना जाता है। हालांकि, कुछ विद्वानों का मानना है कि ये वो शक्तिपीठ नहीं है जिसे दस महाविद्याओं में माना जाता है।
त्रिपुरसुंदरी माता के इस मंदिर से जुड़े पौराणिक तथ्यों और महत्व के अनुसार, त्रिपुरा मगधेश्वरी राज्य की राजधानी हुआ करता था। इसके अलावा इसी स्थान पर माता त्रिपुरसुंदरी देवी ने
त्रिपुरासुर नाम के एक असुर का वध किया था जिसके बाद से इस क्षेत्र का नाम भी त्रिपुर हो गया और उस असुर का वध करने वाली देवी को यहां त्रिपुरेश्वरी देवी कहा जाने लगा।
त्रिपुरा सहीत संपूर्ण उत्तर-पश्चिमी राज्यों में माता के इस शक्तिपीठ मंदिर को ‘माताबाड़ी‘ के नाम से पहचाना जाता है। यहां स्थानीय भाषा में माताबाड़ी का मतलब है माता का मंदिर या माता का घर।
सन 1947 में हुए भारत विभाजन के बाद से भारत के इस संपूर्ण उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र के लिए अब शायद यही एक ऐसा इकलौता पवित्र मंदिर बचा है जहां आदिकाल से यानी युगों-युगों से पूजा होती आ रही है। जबकि सन 1947 से पहले तक यहां से करीब 150 किमी की दूरी पर ढाका शहर में देवी ढाकेश्वरी का दूसरा शक्तिपीठ मन्दिर भी हुआ करता था जो देश के बंटवारे के बाद, बांग्लादेश में जा चुका है, इसलिए आम भारतीय श्रद्धालुओं के लिए वहां दर्शन करने जाना ना ही आसान है और ना ही संभव।
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माता त्रिपुरसुंदरी का ये शक्तिपीठ मंदिर एक कछुए के आकार वाली पहाड़ी पर स्थित है, और क्योंकि कछुए को संस्कृत में ‘कूर्म‘ कहा जाता है, इसलिए इस स्थान को भी कूर्मपीठ कहा जाता है। इसके अलावा, हमें यहां इस बात के प्रमाण मंदिर के वास्तु को देख कर भी आसानी से मिल जाते हैं।
माता त्रिपुरसुंदरी के इस शक्तिपीठ मंदिर की बनावट को दूर से देखने पर लगता है जैसे यह एक पारंपरिक बंगाली झोपड़ी की हूबहू नकल करके बनाया गया है। इसलिए इसमें गोलाकार ऊंचे गुंबद के स्थान पर एक वर्गाकार गर्भगृह है। इस गर्भगृह का कुल क्षेत्रफल 24 गुणा 24 फुट है और इसकी ऊंचाई 75 फुट बताई जाती है।
माता त्रिपुरसुंदरी शक्तिपीठ मंदिर से जुड़े कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, माता का ये मंदिर सोलहवीं सदी के प्रारंभिक दशक में, यानी वर्ष 1501 में महाराजा ध्यान माणिक्य के शासनकाल में बन कर तैयार हुआ था। इस हिसाब से वर्तमान में यह इमारत करीब 520 वर्षों से भी ज्यादा पुरानी है।
त्रिपुरा राज्य में महाराजा ध्यान माणिक्य का शासनकाल सन 1490 से सन 1515 ईसा पूर्व तक रहा था। हालांकि, कुछ लोग इसे 11वीं सदी में बना हुआ मंदिर भी बताते हैं, लेकिन इस बात के यहां कोई खास प्रमाण मौजूद नहीं है।
त्रिपुरसुंदरी देवी के मंदिर का परिसर और इसके पीछे स्थित कल्याण सागर सरोवर स्थल पर आने वाले श्रद्धालुओं को एक प्रकार के अलग और अदभुत आध्यात्मिक वातावरण का एहसास होता है। कछुए के आकार वाली एक छोटी-सी पहाड़ी पर बना माता का ये मंदिर, दूर से देखने पर ऐसा लगता है मानो किसी ने उस पहाड़ी को मुकुट पहना दिया है।
त्रिपुरसुंदरी माता के इस मंदिर के गर्भगृह में, माता की 2 प्रतिमाएं स्थापित हैं, जिसमें से एक प्रतिमा 5 फीट ऊंची प्रमुख प्रतिमाएं है, और दूसरी 2 फीट ऊंची बताई जाती है। बड़े आकार वाली प्रतिमा मुख्य रूप से त्रिपुरसुंदरी देवी के नाम से पूजी जाती है, जबकि छोटे आकार वाली प्रतिमा छोटी मां के नाम से पूजी जाती है।
गर्भगृह में माता की दो प्रतिमायों के विषय में बताया जाता है कि मंदिर के पीछे स्थित कल्याण सागर के सौंदर्यीकरण और निर्माण के लिए हुई खुदाई के दौरान ही उसमें से माता की यह छोटी वाली प्रतिमा प्रकट हुई थी, जिसके बाद उस प्रतिमा की स्थापना भी महाराजा ध्यान माणिक्य ने इसी मंदिर के गर्भगृह में करवा दी गई। संभवतः यही कारण है कि यहां दो प्रतिमायां स्थापित हैं।
माता की ये दोनों ही प्रतिमाएं काले ग्रेनाइट पत्थर से बनी हुई बताई जाती हैं।
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इसके अलावा यहां ये भी कहा जाता है कि युद्ध के दौरान, या फिर किसी भी अन्य काम से राजा ध्यान माणिक्य जब राजधानी से या राज्य से बाहर जाते थे तो वे इसमें से माता की छोटी प्रतिमा को हमेशा अपने साथ ले जाते थे, जबकि एक प्रतिमा मंदिर में ही स्थापित रहती थी।
श्री त्रिपुरसुंदरी देवी का ये शक्तिपीठ मंदिर देश के उन कुछ गिने-चुने मंदिरों में शामिल है जहां अब तक भी पशु बलि जैसी प्रथा बंद नहीं हो सकी है।
अपनी मन्नतें पूरी होने के बाद यहां कई श्रद्धालु आते हैं और मंदिर के प्रांगण में पशु बलि के रूप में बकरे और भैंसे की बलि चढ़वाते हैं। पशु बलि की ये प्रथा यहां साल के कुछ खास दिनों को छोड़ कर लगभग हर दिन देखी जा सकती है।
त्रिपुरसुंदरी देवी मंदिर के पीछे प्राचीन काल का पवित्र कल्याण सागर नाम का एक विशाल आकार वाला सरोवर भी है जो करीब छह एकड़ में फैला हुआ है। बताया जाता है कि इस सरोवर का जिर्णोद्धार और इसके घाटों का निर्माण भी मंदिर निर्माण के दौरान ही करवाया गया था।
त्रिपुरसुंदरी शक्तिपीठ मंदिर के गर्भ गृह में पुजारी के अलावा अन्य किसी को भी जाने की अनुमति नहीं है। इसलिए यहां दूर से ही माता के दर्शन करने होते हैं।
प्रसाद के तौर पर माता को यहां पेड़े का प्रसाद सबसे अधिक चढ़ाया जाता है इसलिए यहां की ज्यादातर दूकानों में पेड़े का प्रसाद ही देखने को मिलता है।
माता त्रिपुरसुंदरी शक्तिपीठ मंदिर से जुड़े ऐतिहासिक बताते है कि जब माता का यह मंदिर बन कर तैयार हो गया था तो उसमें परंपरागत और विधि-विधान से पूजा-पाठ करने वाले योग्य पुजारियों की कमी महसूह हुई। ऐसे में महाराजा ध्यान माणिक्य को किसी ने सलाह दी कि कन्नौज से कुछ योग्य पंडितों और पुजारियों को आमंत्रित किया जा सकता है।
राजा इस बात से सहमत हो गये और उन्होंने उत्तर भारत के कन्नौज राज्य से लक्ष्मी नारायण पांडे और गदाधर पांडे नाम के दो पंडितों को सपरिवार आमंत्रित किया और उन्हें उदयपुर में विशेष तौर पर बसाया गया। तब से लेकर आज तक भी उन्ही पुजारियों का परिवार, माता त्रिपुरसुंदरी के मंदिर में पूजा-पाठ करता आ रहा है। आज उन दो परिवारों का कुनबा यहां काफी बढ़ा हो चुका है और विशेष सम्मान के साथ रह रहा है।