अजय सिंह चौहान || बात सन 1298 की है, उन दिनों दिल्ली की गद्दी पर अलाउद्दीन खिलजी बैठा हुआ था। उसकी एक शहजादी यानी की बेटी भी थी जिसका नाम था फिरोजा। शहजादी फिरोजा ने एक हिंदू राजकुमार के लिए अपनी जान दे दी थी। वह राजकुमार था जालौर का वीरमदेव सोनगरा चौहान।
दरअसल, इतिहास कुछ इस प्रकार से है कि सन 1298 में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति नसरतखां और अलुगखा खा जब गुजरात को अपना गुलाम बनाने के विजय अभियान पर निकले तो इसके लिए उन्हें जालोर पार कर के जाना था। अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने जालोर के राजा कान्हड़ देव से रास्ता माँगा, लेकिन कान्हड़ देव ने इसके लिए इजाजत नहीं दी। जिसके बाद खिलजी की सेना को दूसरे रास्ते से गुजरात की तरफ जाना पड़ा।
इतिहासकारों के अनुसार, अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने उस अभियान में सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर में लूटपाट कर उसे को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद उस मंदिर में स्थापित शिवलिंग के साथ साथ कई महिलाओं और बच्चों को बंदी बनाकर अपने साथ दिल्ली की तरफ लेकर जा रही थी।
जालोर के राजा कान्हड़ देव चौहान को खबर मिली कि, खिलजी की सेना ने कई महिलाओं और बच्चों को गुलाम बना लिया है और सोमनाथ जी के शिवलिंग को हाथी के पांवों में बांधकर घसीटते हुए दिल्ली ले जा रहे हैं तो, राजा कान्हड़ देव चौहान क्रोध से लाल हो गए। उन्होंने उसी समय प्रतिज्ञा ली कि वो हर कीमत पर कैदियों को आजाद कराकर मंदिर का दोबारा निर्माण कराएंगे।
उन्होंने खिलजी की सेना से युद्ध के लिए अपनी सेना को दो भागों में बांटकर रणनीति बनाई और आधी रात को करीब 9 कोस दूर साकरना गांव के पास जा पहुंचे। रणनीति के अनुसार सुबह, सूरज उगते ही अपने से 10 गुनी बड़ी सेना पर हमला बोल दिया गया। अचानक हुए उस हमले से खिलजी की तुर्क फौज संभल ही नहीं पाई।
उस युद्द में खिलजी की सेना की बहुत बड़ी हार हुई। उसके हज़ारों सैनिक मारे गए और बाकी मैदान छोड़कर भाग गए। इस युद्ध में खिलजी का भतीजा भी मारा गया था।
राजा कान्हड़ देव चौहान ने उस जीत के बाद कैदियों को आजाद करवाया और शिवलिंग को भी छुड़ा लिया। उस अपमान के कारण शिवलिंग के दो भाग हो चुके थे। राजा कान्हड़ देव चौहान ने उस शिवलिंग के एक भाग को जालोर के दुर्ग में, और दूसरे भाग को सराणा गांव में स्थापित करवा दिया।
उधर अलाउद्दीन खिलजी को इस बात की जरा उम्मीद नहीं थी कि कोई उसकी सेना को भी हरा सकता था। हालाँकि उस समय खिलजी का पूरा ध्यान चित्तोड़ और रणथम्बोर को अपना गुलाम बनाने की तरफ अधिक था, इसलिए उसने जालोर से उलझने की बजाय चित्तोड़ और रणथम्बोर पर अपना ध्यान लगाए रखा और उन्हें भी जीत लिया।
चित्तोड़ और रणथम्बोर को जीतने के बाद, खिलजी ने सन 1305 में जालोर को भी सबक सीखाने के लिए अपनी सेना को भेजा। लेकिन, जालोर का राजकुमार वीरमदेव चौहान आयु में जितना छोटा था उतना ही बड़ा योद्धा और कुशल नीतिकार था, इसलिए खिलजी की सेना उनसे सीधे उलझना नहीं चाहती थी।
जालोर पर आक्रमण करने के बजाय खिलजी के सेनानायक ने किसी प्रकार से राजा कान्हड़ देव चौहान के साथ एक संधि कर ली। उस संधि के अनुसार जालोर के राजकुमार वीरमदेव सोनगरा चौहान को दिल्ली दरबार में सलाहकार के रूप में भेज दिया गया।
राजकुमार वीरमदेव चौहान उस समय जालोर के सबसे बड़े योद्धा होने के साथ देखने में भी सुन्दर और सुडोल थे। बस फिर क्या था दिल्ली दरबार में रहने के दौरान अलाउद्दीन खिलजी की शहजादी फिरोजा की नजर उन पर पड़ गई और राजकुमार से एकतरफा प्रेम कर बैठी।
दरअसल, अलाउद्दीन खिलजी की बेटी फिरोजा के एकतरफा प्रेम का यह एक ऐसा ऐतिहासिक सच है जिसे भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने जानबूझ कर आम लोगों से छुपाकर रखना चाहा था। और क्योंकि जबतक उनकी तरफ से एकतरफा संवाद चलता रहा तब तक तो उनका अजेंडावादी इतिहास छुपा रहा, और जैसे ही सोशल मीडिया का दौर आया, सबकुछ बाहर आने लग गया।
इतिहासकारों के अनुसार राजा कान्हड़देव का पुत्र वीरमदेव एक बलवान और सुडौल शरीरधारी सुन्दर और तेजवान राजवंशी युवक था, जिसके कारण उसकी वीरता और सुंदरता के किस्से और दोहे राजस्थान में आज भी प्रसिद्ध हैं, जिसमें से एक दोहा कुछ इस प्रकार है – “सोनगरा वंको क्षत्रिय अणरो जोश अपार। झेले कुण अण जगत में वीरम री तलवार।”
लेकिन, क्योंकि उस समय इस तरह के वैवाहिक सम्बन्ध प्रचलन में नहीं थे, इसलिए सुलतान खिलजी की तरफ से दिए गए उस विवाह प्रस्ताव को राजकुमार वीरमदेव ने सामाजिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए स्वयं ही मान्यता नहीं दी।
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इतिहासकारों का कहना है कि राजकुमार वीरमदेव के प्रति शहजादी फिरोजा का वह प्रेम इतना आधी था कि उसका विवाह प्रस्ताव ठुकरा देने के बाद भी फिरोजा ने मन ही मन राजकुमार वीरमदेव को अपना पति मान लिया था।
शहजादी फिरोजा के उस एकतरफा प्रेम के विषय में भी राजस्थान में कई किस्से मशहूर हैं, जिनमें शहजादी कहती है कि – “वर वरूं वीरमदेव, ना तो रहूंगी अकन कुंवारी।”
यानी अगर मैं विवाह करूंगी तो सिर्फ वीरमदेव से, नहीं तो जीवनभर कुंवारी ही रहूंगी।
लेकिन, वीरमदेव ने यह कहकर उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और जालोर लौट आया था कि — “मामो लाजे भाटियां, कुल लाजे चौहान, जे मैं परणु तुरकणी, तो पश्चिम उगे भान।”
यानी, अगर मैं तुरकणी (तुर्की निवासी महिला) से शादी करूंगा तो इससे मेरे मामा (भाटी कुल) और स्वयं का चौहान कुल भी लज्जित हो जाएगा। इसलिए ऐसा तभी हो सकता है जब सूरज पश्चिम से उगे, और ऐसा होनेवाला है नहीं।
राजकुमार वीरमदेव के द्वारा विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिए जाने के बाद अलाउद्दीन खिलजी अपमान की आग में जलने लगा। बदला लेने के लिए खिलजी ने जालोर पर आक्रमण के लिए अगले 5 वर्षों तक कई बार अपनी सैन्य टुकड़ियां भेजीं, लेकिन राजकुमार वीरमदेव की वीरता के सामने हर बार उसे हार का सामना करना पड़ा।
इतिहासकार बताते हैं कि आखिरकार सन 1310 में अलाउद्दीन खिलजी स्वयं एक बड़ी सेना लेकर दिल्ली से जालौर के लिए रवाना हुआ। लेकिन, जालौर पर आक्रमण से पहले उसने सिवाना दुर्ग को घेर लिया। सिवाना पर उन दिनों जालोर के चौहान शासक राजा कान्हड़ देव के भतीजे सातलदेव का शासन था जो जालोर की ओर से सिवाना दुर्ग पर नियुक्त था।
खिलजी ने यहाँ आने के बाद एक गुप्त योजना बनाई और किसी विश्वासघाती के जरिये सिवाना दुर्ग के सुरक्षित जल भंडार में गौ मांस और गौ रक्त डलवा दिया। दुर्ग के लिए इस्तमाल होने वाला सारा जल दूषित हो गया।
सिवाना के शासक सातलदेव के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा था, इसलिए उन्होंने इसे अन्तिम युद्ध की घोषणा मानकर अपने समस्त सैनिकों के साथ “केसरिया बाना” पहन लिया। “केसरिया बाना” एक प्रकार के ऐसे पवित्र वस्त्र होते हैं जिन्हें युद्ध में जाने से पहले हर राजपूत योद्धा पहना करते हैं।
पुरुषों के द्वारा “केसरिया बाना” पहन लेने के बाद दुर्ग में रहने वाली समस्त क्षत्रिय स्त्रियों और अन्य दासियों के पास भी अब कोई विकल्प नहीं बचा था, इसलिए उन सभी स्त्रियों ने पहले ही “जौहर” कर लिया, यानी स्वयं को आग के हवाले कर लिया। उधर सातलदेव आदि भी धर्म की रक्षा के खातिर खिलजी की विशाल सेना के साथ अन्तिम युद्ध करके “वीर शाका” में वीरगति को प्राप्त हो गए।
खिलजी की सेना ने सिवाना के दुर्ग में प्रवेश किया और लूटपाट मचा दी, मंदिरों को खंडित कर दिया। सिवाना पर कब्जे के बाद खिलजी ने अपनी सेना को जालौर पर आक्रमण का हुक्म दे दिया, लेकिन खुद दिल्ली आ गया।
खिलजी की सेना जालौर की तरफ बढ़ती गई। रास्ते में खूब लूटपाट की, अत्याचार किए, सांचोर के प्रसिद्ध जय मन्दिर सहित अन्य कई मंदिरों को खंडित कर दिया। महिलाओं के साथ बलात्कार किया, बच्चों और बुजुर्कों को मार डाला। जिन वीर युवाओं ने उनका प्रतिकार किया वे भी “वीर शाका” करके अन्तिम युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते गए।
इस बीच राजा कान्हड़ देव ने कई बार खिलजी की सेना से सीधे मुक़ाबला किया और उसे खदेड़ा। इस प्रकार दोनों सेनाओ के बीच कई दिनों तक युद्ध चलता रहा। आखिरकार खिलजी ने दिल्ली से अपने सेनापति कमालुद्दीन को विशाल सैन्यदल के साथ जालौर पर बड़े हमले के लिए भेजा।
सेनापति कमालुद्दीन ने जालौर दुर्ग को चारों और से घेर लिया। लेकिन फिर भी वह जालौर को नहीं जीत सका। कई दिन बीत चुके थे। इसलिए खिलजी का सेनापति कमालुद्दीन दिल्ली वापस जाने की तैयारी करने लगा।
लेकिन, तभी राजा कान्हड़ देव के एक सरदार विका ने खिलजी की सेना को जालौर दुर्ग के गुप्त रास्ते का रहस्य बता दिया। इस विश्वासघात के कारण विका की पत्नी ने विका को जहर देकर मार दिया। जबकि, उस विश्वासघाती की वजह से खिलजी की सेना जालौर दुर्ग पर कब्जे के लिए गुप्त द्वार से घुसने लगी।
उधर, जालौर दुर्ग को बचाने के लिए, हजारों राजपूत योद्धा अपनी अंतिम स्वांस तक लड़ते रहे। राजा कान्हड़देव ने गुप्त द्वार से घुसने वाले 50 से अधिक मुगल सैनिकों को मार गिराया, और आखिरकार खुद वीरगति को प्राप्त हो गए।
राजा कान्हड़देव के वीरगति को प्राप्त होने के बाद जालौर के दुर्ग में मौजूद रानियों के अलावा अन्य सभी हज़ारों स्त्रियों और छोटी बच्चियों ने अपनी इज्जत बचने की खातिर जौहर कर लिया।
राजा कान्हड़देव के वीरगति को प्राप्त होने के बाद युद्ध का सारा भार उनके पुत्र राजकुमार वीरमदेव और भाई मालदेव पर आ गया था। राजकुमार वीरमदेव तीन दिनों तक लगातार उस युद्ध को लड़ते रहे।
इतिहासकारों का कहना है कि उन तीन दिनों के युद्ध में वीर राजकुमार ने 40 से अधिक तलवारें तोड़ डाली और करीब 500 से अधिक दुश्मनों को अकेले ही मार डाला था। लेकिन, वो समय भी आ ही गया जब राजकुमार वीरमदेव ने भी “केसरिया बाना” पहन कर मात्र 22 वर्ष की अल्पायु में ही अंतिम युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया।
इतिहासकारों के अनुसार, खिलजी की उस सेना के साथ शाहजादी फिरोजा की “सनावर” नाम की एक धाय भी युद्ध में सेना के साथ आई हुई थी। वीरमदेव के वीरगति को प्राप्त होने के बाद “सनावर” ने उनका मस्तक काट लिया और उसे सुगन्धित पदार्थों में रख कर खिलजी के सामने पेश करने के लिए दिल्ली ले गई।
शाहजादी को जब खबर मिली की वीरमदेव का कटा हुआ मस्तक लेकर सनावर महल में प्रवेश करने वाली है। वह व्यथित हो गई और कहने लगी – “तज तुरकाणी चाल हिंदूआणी हुई हमें। भो-भो रा भरतार, शीश न धूण सोनीगरा।।”
अथार्त- सोनगरे के सरदार आज तू मेरे साथ नहीं है तो क्या हुआ, तू मेरे जन्म-जन्मांतर का भरतार, अर्थात पति है। आज मैं तुरकणी से हिन्दू बन गई और अब अपना मिलन अग्नि की ज्वाला में ही होगा। इतना कहने के बाद शहजादी फिरोजा ने वीरमदेव की याद में एक सुहागिन हिन्दू स्त्री की भांति सजधज कर अपनी चिता स्वयं सजाई और उसमें सती हो गई।
आज भी जालौर में सोनगरा की पहाड़ियों पर स्थित पुराने किले में शहजादी फिरोजा की याद में उसके नाम का समाधि स्थल मौजूद है, इस समाधि स्थल को “फिरोजा की छतरी” के नाम से जाना जाता है। इस समाधि स्थल पर विशेष तौर पर हिन्दुओं को भारी संख्या में देखा जा सकता है।