डॉ. स्वप्निल यादव || राजस्थान में एक कहावत है कि यदि बहु एक घड़ा घी गिरा दे तो सास कुछ नहीं कहती, अगर पानी गिरा दे तो डांट जरूर पड़ती है । एक और कहावत है कि यदि साधारण मेहमान है तो मलाईदार दूध दो और विशेष मेहमान है तो पहले एक गिलास पानी दो फिर दूध । पानी भी लोटे में देते हैं जिसे ऊपर से पीना पड़ता है जिससे बचा हुआ पानी दूसरे कार्यों के लिए प्रयोग किया जा सके। प्रत्येक वर्ष मानसून की अनियमितता के कारण अतिवृष्टि एवं अल्पवृष्टि देश भर में कई राज्यों को प्रभावित करती है । राजस्थान में रेगिस्तानी इलाका होने के कारण, अल्पवर्षा, और नदियों में पर्याप्त जल की उपलब्धता न होना राजस्थान के लिए सदियों से संकट का कारण रहा है।
चांद बावड़ी दुनिया की सबसे गहरी बावड़ी हैं। इसकी संरचना विहंगम हैं जो कि मन मोह लेती हैं । यह बावड़ी 35 मीटर के वर्गाकार आकृति में बनी हुई हैं । यह 100 फ़ीट गहरी हैं जो कि 13 मंजिला हैं । प्राचीन काल में वास्तुकारों और वहां के लोगों द्वारा जल संरक्षण और वाटर हार्वेस्टिंग के लिए बनाई गई इस प्रकार की कई बावड़ियां आज भी इस क्षेत्र में मौजूद हैं, जिनमें काफी पानी जमा रहता है। यह पानी क्षेत्र के निवासियों के वार्षिक उपयोग के काम में आता है। कुओं की अपेक्षा बावड़ियां ज्यादा गहरी होती हैं इसलिए इनमें अधिक मात्रा में पानी संरक्षित करके रखा जा सकता है।
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पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के निदेशक हृदेष शर्मा के अनुसार ‘हेरिटेज वाटर वॉक’ के माध्यम से जयपुर के नाहरगढ किले एवं आमेर महल में स्थापित अनूठी जल संग्रहण प्रणाली को पर्यटकों से रूबरू कराया जा रहा है जिससे वह इस बारे में जागरूक हों। नाहरगढ़ की व्यापक जल संरक्षण प्रणाली इस किले की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। नाहरगढ़ में बने हुए जल संरक्षण टैंक में पानी लाने के लिए आस पास छोटी नहरों के जरिए पहाडिय़ों से वर्षा जल नीचे आता है। इन नहरों के तल पहाडिय़ों के ढलान पर इस तरह से बने हुए है कि वर्षा जल इनसे होता हुआ आसानी से आ जाता है।
आमेर किले की वाटर लिफ्टिंग और वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली अद्भुत है। आमेर महल में पानी के दो स्त्रोत मावठा झील और महल में मौजूद वर्षा जल संचयन प्रणाली अब भी देखी जा सकती है। नाहरगढ़ में पानी पहाडिय़ों के माध्यम से नीचे आता है वहीं आमेर महल में पानी पहुंचाने के लिए मावठा झील से कुछ सौ फीट ऊपर पानी पहुंचाने के लिए जटिल व्यवस्था का उपयोग किया जाता था।
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जोहड़ का उपयोग प्राचीनकाल से होता आया है लेकिन मध्यकाल आते-आते लोगों ने जोहड़ को भुला दिया था जिससे जलसंकट उत्पन्न हो गया। खदीन का सर्वप्रथम प्रचलन 15वीं शताब्दी में जैसलमेर के पालीवाल ब्राह्मणों ने किया था। यह बहुउद्देशीय परम्परागत तकनीकी ज्ञान पर आधारित होती है। खडीन के निर्माण हेतु राज जमीन देता था जिसके बदले में उपज का 1/4 हिस्सादेना पड़ता था। जैसलमेर जिले में लगभग 500 छोटी बडी खडीनें विकसित हैं जिनसे 1300 हैक्टेयर जमीन सिंचित की जाती है। झालरा, अपने से ऊंचे तालाबों और झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। इनका स्वयं का कोई आगोर (पायतान) नहीं होता है। झालराओं का पानी पीने हेतु नहीं, बल्कि धार्मिक रिवाजों तथा सामूहिक स्नान आदि कार्यो के उपयोग में आता था। इनका आकार आयताकार होता है। कुई या बेरी सामान्यतः तालाब के पास बनाई जाती है। जिसमें तालाब का पानी रिसता हुआ जमा होता है। कुई मोटे तोर पर 10 से 12 मीटर गहरी होती हैं। इनका मुँह लकड़ी के फन्टों से ढंका रहता है ताकि किसी के गिरने का डर न रहे। पश्चिमी राजस्थान में इनकी अधिक संख्या है।
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भारत-पाक सीमा से लगे जिलों में इनकी मौजूदगी अधिक हैं।टांका राजस्थान में रेतीले क्षेत्र मं वर्षा जल को संग्रहित करने की महत्वपूर्ण परम्परागत प्रणाली है। इसे कुंड भी कहते हैं। यह विशेषतौर से पेयजल के लिए प्रयोग होता है। यह सूक्ष्म भूमिगत सरोवर होता है। जिसको ऊपर से ढक दिया जाता है इसका निर्माण मिटी से भी होता है और सिमेण्ट से भी होता है।
वर्ष 1520 ई. में राव जोधाजी ने सर्वप्रथम एक नाडी़ का निर्माण करवाया था। पश्चिमी राजस्थान के प्रत्येक गांव में नाडी़ मिलती है। रेतीले मैदानी क्षेत्रों में ये नाडियाँ 3 से 12 मीटर तक गहरी होती है। इनमे जल निकासी की व्यवस्था भी होती है। यह पानी 10 महिने तक चलता है। नाडी़ वस्तुतः भूसतह पर बना एक गडा होता है जिसमें वर्षा जल आकर एकत्रित होता रहता है। समय समय पर इसकी खुदाई भी की जाती है, क्योंकि पानी के साथ गाद भी आ जाती है जिससे उसमें पानी की क्षमता कम हो जाती है। कई बार छोटी-छोटी नाड़ियों की क्षमता बढा़ने के लिए दो तरफ से उनको पक्की कर दिया जाता है। नाडी़ बनाने वाले के नाम पर ही इनका नाम रख दिया जाता है। अधिकांश नाड़िया आधुनिक युग में अपना अस्तिव खोती जा रही है। इन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है।