अजय सिंह चौहान || वैज्ञानिकों के सामने आज भी यह एक बहुत ही जटील प्रश्न है कि पृथ्वी का करीब 71 प्रतिशत क्षेत्र पानी से ढका हुआ है लेकिन, इसके बाद भी पता नहीं चल पा रहा है कि यह पानी पृथ्वी पर कब और कैसे आया? दरअसल, वैज्ञानिक इस बात को जानने में लगे हैं कि क्या यह पानी किसी अन्य ग्रह से आया है या फिर पृथ्वी के साथ ही इसका भी जन्म हुआ होगा?
पिछले कुछ वर्षों से दुनियाभर के वैज्ञानिक आज भी इस बात की जांच में लगे हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पृथ्वी पर मौजूद यह पानी वास्तव में किसी अन्य ग्रह से यहां लाया गया हो। क्योंकि जब भी वे इस विषय पर रिसर्च करने के लिए आगे बढ़ते हैं तो उन्हें हर बार हिंदू धर्म के उन वेद और पुराणों की ओर जाने का भी इशारा मिलता है जिनमें स्पष्ट कहा गया है कि देवताओं के द्वारा गंगा नदी को स्वर्ग से उतरा गया है। तो क्या इसका मतलब यह है कि पृथ्वी का यह पानी किसी अन्य ग्रह से यहां लाया गया होगा।
वैज्ञानिक यह भी अनुमान लगाते हैं कि हो सकता है कि यही सत्य हो कि जिस प्रकार से महाभारत में उल्लेखित है कि गंगा नदी को स्वर्ग से यानी किसी अन्य ग्रह से पृथ्वी पर उतारा गया है उसी प्रकार अन्य नदियों में बहने वाले पानी को भी हमारे इस सौर मंडल के बाहर के किसी बहुत बड़े ग्रह से लाया गया हो। और फिर वही पानी समुद्रों में इकट्ठा होता गया और उसके बाद जब पृथ्वी पर पानी की मात्रा पर्याप्त हो गई हो तो उन देवताओं ने उसको रोक दिया हो।
हालांकि, कुछ वैज्ञानिकों ने अपने-अपने हिसाब से अन्य प्रकार के सिद्धांत भी दिये हैं जिनके अनुसार या तो पृथ्वी ने अपना पानी स्वयं से बनाया है या फिर सौरमंडल से आने वाले एस्टेराॅयड आदि के जरिये यह पानी यहां आया है। एस्टेराॅयड, यानी साधारण भाषा में कहें तो उल्कापिंड। हमारे सौरमंडल में लाखों ऐसी छोटे-बड़े आकार की चट्टाने हैं, जो सूर्य की परिक्रमा करते-करते पृथ्वी के पास से गुजर जातीं हैं और उनमें से कुछ तो हमारे वायुमंडल में भी प्रवेश कर जाती हैं। जो चट्टानें हमारे वायुमंडल में प्रवेश कर जाती हैं वे जलकर टूकड़े-टूकड़े जो जाती हैं और धरती पर गिर जाती हैं और उन्हीं उल्कापिंड के माध्यम से यह पानी भी पृथ्वी पर आया होगा।
अमेरिका के कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाॅजी के शोधकर्ताओं ने इस रहस्य को लेकर अपनी रिसर्च में फिलहाल जो पाया है उसके अनुसार पृथ्वी का निर्माण शुरुआत में सूखी मिट्टी और चट्टानी सामग्रियों से हुआ होगा और पानी तो उसके बहुत बाद में इन्हीं बड़े आकार के उल्कापिंड के माध्यम से आया होगा।
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शोधकर्ताओं ने इस विषय पर भी अनुमान लगाया है कि पृथ्वी का निर्माण लगभग 4.5 अरब वर्ष पूर्व हुआ है, जबकि इसके करीब 15 प्रतिशत हिस्से के निर्माण के दौरान ही इस पर पर्याप्त मात्रा में पानी और आक्सिजन और वनस्पति जैसे जीवन के लिए सबसे आवश्यक पदार्थ आदि शामिल हो गए थे। और फिर उसके बाद ही यहां जीवन की भी शुरूआत हो गई।
हालांकि, वैज्ञानिक इस बात के लिए भी रिसर्च कर रहे हैं कि आखिर इस पृथ्वी का निर्माण कैसे हुआ होगा? और करीब-करीब हर एक वैज्ञानिक इस बात से सहमत है कि प्रथ्वी के निर्माण का पता लगाने के लिए इसके आंतरिक भाग में स्थित गर्म मैग्मा यानी की लावा की जांच करना होगा। लेकिन, फिलहाल तो यह संभव ही नहीं है कि हम पृथ्वी की गहराई तक पहुंच कर वहां से गर्म मैग्मा को प्राप्त कर सकें।
शोधकर्ताओं का कहना है कि मैग्मा पृथ्वी की अलग-अलग गहराई में अलग-अलग प्रकार से होते हैं, जिसमें से निचला मेंटल 680 किलोमीटर से 2900 किमी कोर मेंटल की सीमा तक भी फैला हो सकता है। जबकि ऊपरी मेंटल 15 किलोमीटर की गहराई से शुरू होता है और लगभग 680 किलोमीटर तक की गहराई में फैला हो सकता है। इससे यह पता चलता है कि पृथ्वी का निर्माण अचानक से नहीं हुआ बल्कि समय के साथ अलग-अलग प्रकार की तरल और ठोस सामग्रियों के आपस में मिलने से हुआ।
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वैज्ञानिकों ने अपने हाल ही में किये गये अध्ययनों में पृथ्वी की गहराई में प्राप्त पानी सहित अन्य प्रकार के रसायनों पर भी गहराई से अध्ययन किया जिसमें उन्होंने पाया कि संभव है कि हमारा यह ग्रह यानी पृथ्वी, जब एक सख्त चट्टान के रूप में बन कर तैयार हुआ होगा तब यह पूरी तरह सूखा ही रहा होगा। इसलिए यहां हम दावे के साथ यह बात कह सकते हैं कि पानी इसके बहुत बाद में आया है।
अब अगर यहां हम धर्म के आधार पर पानी की उत्पत्ति और पृथ्वी की की रचना और आयु की बात करें तो भले ही आज का विज्ञान इसके लिए हार मान लेता हो, लेकिन, हिंदू धर्म में ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों-लाखों वर्ष पहले ही पृथ्वी पर मौजूद इस पानी के जन्म को लेकर गहन चिन्तन कर लिया था और बता दिया था कि पानी यानी की जल के मौलिक रूप में नारायण का वास है।
हिंदू धर्म ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि सृष्टि के पूर्व नर अर्थात जल भगवान का ‘‘अयन’’ अर्थात निवास था और आज भी है, यानी कि यह कोई परंपरा नहीं बल्कि ए सनातन विज्ञान है। तभी तो कहा जाता है कि ‘‘नारायण’’ अर्थात भगवान विष्णु का निवास स्थान पानी में होने के कारण ही विष्णु जी को नारायण कहा जाता है। यहां हम यह भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार से भगवान विष्णु आदिकाल से हैं और अविनाशी हैं, उसी प्रकार से जल भी अनादि काल से है और और अनन्त है। जल के बारे में कहा गया है –
आपो नारा इति प्रोक्ता, नारो वै नर सूनवः। अयनं तस्य ताः पूर्व, त्तो नारायणः स्मृतः।।
अर्थात् ‘आपः’ यानी कि जल के विभिन्न प्रकार को ‘नाराः’ कहा जाता है क्योंकि वे ‘नर’ से उत्पन्न हुए हैं। और क्योंकि ‘नर’ का मूल निवास ‘जल’ में ही है, इसलिये जल में निवास करने वाले और जल में व्याप्त ‘नर’ को ही ‘नारायण’ कहा जाता है।
संस्कृत भाषा में जल को ‘नर’ या ‘नीर’ कहा जाता है। इस शब्द की उत्पत्ति ‘‘पुरुषोत्तम’’ यानी ‘नर’ से हुई है। जबकि हिंदू धर्म के अलावा अन्य किसी भी धर्म में पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि, वायु आदि की उत्पत्ति से जुड़े कोई भी प्रमाण या उल्लेख है ही नहीं। भले ही आज का विज्ञान खुल कर न कहे लेकिन, जाने-अनजाने वे इस बात को मानने पर विवश हो ही जाते हैं कि हमारी तमाम प्रकार की शोध जो हम आज कर रहे हैं वे तो हिंदू धर्मग्रंथों में पहले से ही मौजूद है। क्योंकि उनमें स्पष्ट लिखा है कि सनातन धर्म पृथ्वी के साथ ही प्रारंभ हुआ था।
सनातन धर्म में नीर, जल या पानी को इसीलिए अमर माना गया है क्योंकि यह सृष्टि के पहले भी मौजूद था, आज भी मौजूद है और सृष्टि का विनाश होने के बाद भी यह मौजूद रहेगा। इसलिए वैज्ञानिक जब जल और पृथ्वी की उत्पत्ति और इनके रहस्यों को लेकर गहन अध्ययन करने लगते हैं तो उनके सामने हर बार हिंदू धर्म के ग्रंथों से निकला यह खुला ज्ञान और विज्ञान सामने आ ही जाता है।