श्रीकृष्ण द्वारा सिंधु सागर (अरब सागर) के जल पर तैरता हुए नगर बसाया गया था। पौराणिक शहर के उस अस्तित्व पर किसी भी विदेशी को विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान की खोजों ने उस द्वारिका की पुस्टि करके पश्चिमी लोगों को तो आश्वस्त कर दिया है कि जल पर तैरता हुए नगर बसाया गया था और उसके अवशेष आज भी समुद्र के जल की करीब 30 मीटर की गहराई में मौजूद हैं।
लेकिन भारतीय राजनीति ने या तो किसी विदेशी दबाव के चलते उस अभियान को रोक दिया या फिर हमारी राजनीति हिंदुत्व को दबाकर ख़त्म करना चाहती है, शायद इसीलिए उसको सामने नहीं लाना चाहती हैं।
आज भारत के पास पर्याप्त संसाधन हैं, उपकरण हैं और पर्याप्त क्षमता भी है। लेकिन इच्छाशक्ति की बहुत अधिक कमी है इसलिए इसमें हर एक सरकार और राजनीतिक पार्टियां मात्र इसीलिए पीछे हटती दिख रहीं हैं क्योंकि यह कार्य हिन्दू समाज के शौर्य और प्राचीनता को और अधिक उभार देगा और फिर इससे अन्य धर्मियों को भारी नुक्सान हो सकता है।
वर्ष 2001 में, भारत के उत्तर-पश्चिमी तट पर खंभात की खाड़ी (पूर्व में कैम्बे) में नियमित प्रदूषण अध्ययन के दौरान, राष्ट्रीय महासागर प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईओटी) सर्वेक्षण नौकाओं पर सोनार उपकरण ने नियमित, ज्यामितीय आकृतियों का पता लगाया।
भारतीय पुरातत्व विभाग के गोताखोरों ने उस प्राचीन द्वारिका की जांच की और पानी के 30-40 मीटर नीचे कई बड़े आयताकार पत्थरों के मानव निर्मित ब्लॉक भी पाए । ये ब्लॉक संभवतः इमारतों की आधारशिला, एक प्राचीन शहर के बारे में उस जिज्ञासा को फिर से जगाते हैं जो श्रीकृष्ण की मृत्यु के ठीक 36 वर्षों के बाद समुद्र ने निगल लिया था।
सबसे पहले तो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने वर्ष 1930 के दशक में, आज के द्वारका शहर से लगभग 30 किमी उत्तर में, बेट द्वीप पर खुदाई भी शुरू की थी और वहाँ से हड़प्पा या सिंधु सभ्यता युग की कुछ जलमग्न बस्तियों के साक्ष्य उजागर किए। लेकिन] ये बस्तियाँ समुद्र के तटीय कटाव के कारण जलमग्न हुई होगी ऐसा बताया गया था। लेकिन, पिछले दशक की खोज ने प्राचीन द्वारिका नगरी के खोए जलमग्न शहर को फिर एक बार खोजने में रुचि जगा कर हिन्दुओं को उत्साहित किया था।