देश में इस बात की चर्चा बेहद जोर-शोर से हो रही है कि मुफ्त में रेवड़ी बांटने की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगी तो भविष्य में इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि मुफ्त की रेवड़ी मतदाताओं को फंसाने का एक चारा है। मुफ्त की रेवड़ी एवं जन कल्याणकारी योजनाओं में जो अंतर है, उसे देशवासियों को समझाने के लिए इस पर व्यापक रूप से बहस एवं चर्चा होनी चाहिए।
देश में पहले से ही अनेक जन कल्याणकारी योजनाएं हैं, क्या उनका संचालन ठीक तरह से हुआ है, इस बात की भी चर्चा देशवासियों के बीच होनी चाहिए। कई राज्यों में चुनाव आने से पहले तमाम लोग बिना जरूरत के ही ऋण लेना शुरू कर देते हैं, उसके पीछे मंशा यह होती है कि चुनाव से पहले संभवतः ऋण माफी की घोषणा हो जाये। यदि ऐसा होता है तो अति उत्तम अन्यथा ऋण चुकता कर दिया जायेगा। यह सब लिखने का मेरा आशय मात्र इतना ही है कि यह एक प्रवृत्ति बनती जा रही है। यह भी रेवड़ी संस्कृति का ही एक रूप है।
अब सवाल यह उठता है कि यदि कोई व्यक्ति गरीबी या लाचारी में मुफ्त में कुछ पाने की चाहत रखे तो यह उसकी मजबूरी है। उसकी यह चाहत अभाव के कारण है किन्तु जब किसी के स्वभाव में ही यह आ जाये कि मुफ्त में यदि कुछ मिल रहा है तो लेने में हर्ज ही क्या है? उदाहरण के तौर पर राजधानी दिल्ली की बसों में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि महिलाओं के लिए यात्रा मुफ्त है किन्तु यदि वे चाहें तो टिकट ले सकती हैं किन्तु उसका क्या परिणाम है? यह सभी को मालूम है। भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही एक कहावत प्रचलित है कि ‘बूंद-बूंद से सागर भरता है’ यानी थोड़े-थोड़े प्रयासों से सरकारी खजाना भर भी सकता है तो खाली भी हो सकता है।
वास्तव में जन कल्याणकारी योजनाएं जरूरतमंद लोगों के लिए बनी हैं। इनका लाभ यदि सभी को मिलने लगेगा तो व्यवस्था चरमरा जायेगी। अभाव में यदि किसी को मदद की जरूरत हो तो सर्वदृष्टि से उसकी मदद करनी चाहिए किन्तु यदि मदद की चाहत सर्वदृष्टि से संपन्न होते हुए भी स्वभाव में आ जाये तो इससे सचेत होने की आवश्यकता है। इसके दूरगामी परिणाम बहुत भयावह हो सकते हैं।
‘रेवड़ी संस्कृति’ को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी बहुत चिंचित है और उसने केन्द्र सरकार से इस संदर्भ में सर्वदलीय बैठक बुलाने को भी कहा है। ‘मुफ्त का चंदन, घिस मेरे नंदन’ वाली कहावत बहुत दिनों तक चरितार्थ होने वाली नहीं है। इसके लिए देश के सभी दलों एवं जनता को विचार करना होगा। अभावग्रस्त व्यक्ति को तो उबारा जा सकता है किन्तु स्वभाव से ही अभावग्रस्त व्यक्ति को उबारना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है। अतः इस संबंध में विस्तृत रूप से विचार करने की आवश्यकता है। आज नहीं तो कल इस पर विचार करना ही होगा।
– जगदम्बा सिंह