अजय सिंह चौहान || सनबर्ड (Sunbird) या सूर्य-पक्षी को भारत में प्रायः ‘शकरीखोरा’ के नाम से जाना जाता है। प्रकृति से अनूठी सुन्दरता प्राप्त किए हुए यह पक्षी आकार-प्रकार में अपने-आप में आश्चर्य की भांति लगता है। यह एक एैसा पक्षी है जिसे यदि कोई एक बार पहचान ले तो वह उसे कभी नहीं भूल पाएगा। हमारे आस-पास के तथा घरेलू बाग-बगीचों, हरे-भरे वन प्रदेशों तथा ऐसे स्थानों में, जहां फूलों का मधुररस या अमृतरस सरलता से मिल सकता है वहां इन्हें फूलों पर मंडराते हुए आसानी से देखा जा सकता है। इन पक्षियों का कलरव बड़ा ही कर्ण-प्रिय एवं मन-मोहक होता है।
बसन्त ऋतु के आते ही जब सेमल के वृक्षों पर फूलों की बहार आने लगती है तो उन पर इन पक्षियों का मेला-सा लगने लग जाता है। प्रातः होते ही वे सबसे पहले वहां आ जाते हैं और सन्ध्याकाल तक वे उस मधुर-रस का आनन्द उठाते रहते हैं। वे इसे जी भर कर पीते हैं, फिर भी नहीं अघाते और सुबह होते ही दूसरे दिन फिर वहां आ पहुंचते हैं। उनका यह सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक कि फूलों की बहार रहती है। सेमल का वृक्ष ही मानो उनका मदिरालय है। इसकी खास आदत है कि यह उड़ता हुआ भी फूलों का रस पी लेता है। इसके अतिरिक्त मुंह का स्वाद बदलने के लिए जब-तब छोटे-छोटे कीड़ों को भी यह बड़े ही चाव से खाता है।
रंग एवं आकार के आधार पर पक्षी-विज्ञानियों ने इनको 95 प्रकार की विभिन्न उपजातियों या प्रजातियों में विभाजित किया है। जिसमें से अफ्रीका में इस प्रजाति की संख्या सबसे अधिक पाई जाती है। जैसे- येलोबेक्ड-सनबर्ड, रेडथ्रोट-सनबर्ड, पर्पल-सनबर्ड, प्लेन-सनबर्ड, ग्रीन-सनबर्ड, रीगल-सनबर्ड (Sunbird) आदि। यह पक्षी कुछ-कुछ अमेरिकन हमिंगबर्ड अथवा अस्ट्रेलिया में पाये जाने वाले हनिईटर की तरह भी दिखता है।
हमारे देश में इसमें से मुख्यतः दो प्रकार की प्रजातियां ही देखने को मिलती हैं – जिनमें से एक वह जिसका रंग हल्का बैंगनी होता है तथा दूसरी गाढ़े बैंगरी रंग की है। इसके बैंगनी रंग में कुछ ऐसा चमकीलापन होता है कि रोशनी के अनुरूप इसका रंग भी बदला-सा प्रतीत होता रहता है, अर्थात् छांव में यह काला और धूप में कभी हरा तो कभी नीला मालुम होता है। इसके अतिरिक्त ऋतुओं में परिवर्तन के अनुसार भी इसके रंगों में परिवर्तन आता-जाता रहता है।
भारतीय उपमहाद्वीप के सदाबहार जंगलों, तराई वाले मैदानों से लेकर दक्षिण भारत एवं श्रीलंका में इसे अत्यधिक देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त मौसम तथा जलवायु के अनुसार ये पक्षी अपना स्थान भी बदलते रहते हैं।
इस पक्षी की लम्बाई लगभग तीन इंच से छः इंच तक होती है। इसकी चोंच लम्बी, पैनी तथा घुमावदार होती है, जिसमें मादा की चोंच नर की तुलना में कम घुमावदार, तीखी, किन्तु अधिक लम्बी होती है। इनकी यही तीखी व पैनी चोंच फूलों का रस चूसने में इनकी बहुत मदद करती है।
इस पक्षी का घोंसला पेड़ की डाल या टहनी से लटकता हुआ तथा मकड़ी के जाल-सा सुगठित होता है जिसके कारण इसके भीतर पानी की एक बुंद तक नहीं जा पाती है। इस घोंसले का आकार बहुत कुछ सोडा-वाटर की बोतल जैसा दिखता है।
स्वभाव से विलासी और मधुपायी होने के कारण यह चिड़िया अपने घोंसले में सेमल की रूई की मुलायम सेज बिछाए रहती है। इस घोंसले के भीतर यह कई प्रकार की वस्तुओं का भी इंतजाम करके रखती हैं। यह घोंसला मुलायम घास लम्बे तथा पतलेे तिनकों से बनाया जाता है, जो समान्यतः तीन सप्ताह में बनकर तैयार हो जाता है। इस घोंसले के भीतरी भाग को बीट तथा फलों-फूलों के रसों से लीप कर ही मादा अण्डे देती है।
बसन्त ऋतु से लेकर वर्षा काल तक इसे मादा को आकर्षित करने और दिल लुभाने की आवश्यकता रहती है, शायद इसीलिए नर पक्षी का रंग अधिक चित्ताकर्षक हो जाता है। इस दौरान इसका रंग अत्यधिक भड़कीली पोशाकें पहने हुए जैसा जैसा दिखता है। मादा को देखते ही नर उत्तेजित होकर ‘चिविट-चवट’ जैसी आवाजें निकालना शुरू कर देता है। सम्भवतः यह इसके प्रणय निवेदन का एक ढंग माना गया है। इस समय यह नर अपने पंखों को फड़फड़ाकर अपनी मोहक छटा बिखेरने लगता है।
मादा पक्षी प्रजनन-क्रिया में बड़ी सिद्धहस्त मानी जाती है- जो एक वर्ष में दो या इससे भी अधिक बार अंडे दे सकती है। अण्डे देने का समय मुख्यतः मार्च-अप्रैल का होता है। इसके अण्डों का रंग मटमैला सफेद होता है। जिस पर गन्दे दाग पड़े होते हैं। इनके अण्डों की संख्या दो से तीन तक ही देखी गई हैै। इसके अंडों के प्रबल शत्रु सांप, कौए तथा गिलहरियां हैं। फिर भी इनकी संख्या घटती नहीं है और आज भी पुष्प-वाटिकाओं में ये दर्जनों की संख्या में विचरते रहते हैं।
इन पक्षियों में अण्डों को सेहने का काम मादा का ही होता है। इस दौरान, जब तक कि अण्डों से बच्चे बाहर नहीं आ जाते तब तक मादा के लिए भोजन तथा उसको सुरक्षा उपलब्ध कराने का कार्य-भार नर पक्षी का होता है। किसी भी प्रकार से खतरे का आभास होने पर वह अपनी तीखी आवाज से मादा को सतर्क कर देता है। इस प्रकार नर तथा मादा दोनों अपने माता-पिता होने का दायित्व निभाते हैं। और जब बच्चे अण्डों से बाहर आ जाते हैं तो उनके लिए भोजन लाकर खिलाने का काम भी बारी-बारी से दोनों ही करते हैं।
इनके नवजात शिशु पक्षियों में कोई अन्तर नहीं होता। देखने में दोनों लगभग एक से लगते हैं, लेकिन जैसे-जैसे शिशु वयस्क होते जाते हैं, यह अन्तर स्पष्ट होता जाता हैं। बच्चों के वयस्क होने पर अन्य पक्षियों की ही भांति इनके माता-पिता भी उन्हें स्वतन्त्र छोड़कर घोंसले से बाहर आ जाते हैं।
इसी वंश की एक अन्य एक छोटी-सी चिड़िया जो फूलचुही के नाम से जानी जाती है। यह कद में तो अत्यधिक छोटी किन्तु चुलबुलाहट में सबसे आगे है। इसे भी फूलों से बेहद प्रेम है। देखने में इसका ऊपरी हिस्सा, गर्दन से पीठ तक कंजई होता है जिसमें हरे रंग की झलक आती है; नीचे का हिस्सा पीलापन लिए हुए सफेद होता है। इसकी दुम और डैने भूरे रंग के होते हैं। इसकी चोंच और पैर स्लेटी होती है जिसमें पीलापन भी रहता है। इसमें मादा की दुम कुछ छोटी होती है। इनके अंडों की संख्या भी दो से तीन तक ही होती है, जिनका रंग सफेद होता है जिस पर कुछ-कुछ भूरे रंग के दाग पड़े होते हैं।