अजय सिंह चौहान || छिन्नमस्तिका माता का शक्तिपीठ मंदिर और इसमें विराजित माता के दर्शन करने के लिए पहली बार आने वाले उनके तमाम भक्तों और श्रद्धालुओं के लिए माता का यह रूप जितना अद्भूत लगता उतना ही आश्चर्यचकित कर देने वाला माता का यह छिन्नमस्तिका नाम भी होता है। इसके अलावा कुछ श्रद्धालु तो यहां माता का यह स्वरूप देखकर भयभीत भी हो जाते हैं।
माता आदिशक्ति का यह प्रसिद्ध मंदिर छिन्नमस्तिके के तौर पर जाना जाता है जो कि 52 शक्तिपीठों में से एक है। इस मंदिर का उल्लेख हमारे वेदों और पुराणों में भी पाया जाता है। माता छिन्नमस्तिके का यह मंदिर झारखंड की राजधानी रांची से करीब 80 किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा में भैरवी और दामोदर नदियों के संगम पर स्थित है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ की राजधानी रामगढ़ से करीब 28 किमी की दूरी पर स्थित है।
दरअसल, मंदिर के गर्भगृह में विराजित माता छिन्नमस्तिका को देवी काली के रूप में पूजा जाता है और माता की इस प्रतिमा के दाएं हाथ में तलवार और बाएं हाथ में उनका यानी स्वयं माता का ही कटा हुआ मस्तक है। गर्भगृह में विराजित माता की इस प्रतिमा के कटे हुए उस मस्तक में तीन आंखें दिखाई देती हैं। माता का बायां पैर आगे की ओर है जो कमल पुष्प पर रखा हुआ दिखता है। पांव के नीचे कामदेव और रति को विपरीत रति मुद्रा की शयनावस्था में दर्शाया गया है।
माता के दोनों ओर डाकिनी और शाकिनी नामक अन्य दो देवियां भी खड़ीं हैं जो माता के धड़ से निकलने वाले रक्त की दो अलग-अलग धाराओं को पीते हुए दिख रहीं हैं जबकि तीसरी रक्त धारा को माता के बायें हाथ में रखा उनका कटा हुआ मस्तष्क स्वयं भी पी रहा है। इसमें मां छिन्नमस्तिका के गले में सर्पमाला के साथ मुंडमाला भी दिखाई देती है। माता के कटे हुए उस मस्तक के केश खुले अैर बिखरे हुए हैं। जबकि माता के हाथ में उनके स्वयं के मस्तक सहित उनका बाकी धड़ भी अन्य आभूषणों से सुसज्जित दर्शाया गया है।
और क्योंकि इसमें माता काली के छिन्नमस्तिका के इसी रूप की पूजा होती है इसलिए यहां गर्भगृह में माता की प्रतिमा भी उसी प्रकार से दर्शायी गई है। यानी इस मंदिर के गर्भगृह में माता की जो प्रतिमा है वह बिना मस्तिष्क के ही है।
जैसे कि यहां माता छिन्नमस्तिका के नाम से ही यह स्पष्ट होता है कि इसमें माता का मस्तिष्क छिन्न है, यानी कटा हुआ है या धड़ से अलग है। दरअसल, यहां माता को छिन्नमस्तिका नाम क्यों और कैसे मिला इस विषय पर यहां माता की प्रतिमा को देखकर सहज ही कहा जा सकता है। छिन्न का अभिप्राय कट कर अलग हुआ भाग या बिखरा हुआ हिस्सा होता है और यहां पर भी माता का यही रूप उनके छिन्नमस्तिका नाम को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है।
माता छिन्नमस्तिका के इस रूप के विषय में एक पौराणिक कथा बताती है कि, देवताओं और असुरों के बीच छिड़े संग्राम में माता पार्वती ने चंडी का रूप धारण करके असूरों का संहार कर देवताओं को विजय दिलाई थी।
इस भीषण संग्राम के बाद भी मां की सहायक योगीनियों डाकिनी और शाकिनी की रक्त पिपासा शांत नहीं हुई, ऐसे में माता ने अपना स्वयं का ही मस्तक काट कर अपने धड़ से बहने वाले रक्त से उन दोनों योगिनियों की रक्त पिपासा को शांत किया था।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मस्तक काटने के बाद माता के शरीर से रक्त की तीन धारायें निकलीं थी। उन तीन धाराओं में से दो धाराओं से डाकिनी और शाकिनी नामक माता की उन दो योगीनियों ने अपनी रक्त पिपासा को शांत कर लिया जबकि, रक्त की तीसरी धारा स्वयं माता के कटे मस्तिष्क के मुंह में जा रही थी और माता स्वयं ही अपने रक्त की उस तीसरी धारा को पी रहीं थी।
पुराणों में वर्णित दस अलग-अलग महाविद्याओं में छिन्नमस्तिका माता के इस रूप को छठी महाविद्या के रूप में माना जाता है। माता छिन्नमस्तिका का यह पीठ एक जागृत शक्तिपीठ के रूप में पूजा जाता है। स्थानीय लोगों की आस्था है कि भैरवी और दामोदर नदी का यह संगम स्थल माता पार्वती और भगवान शिव के संगम का प्रतिक है। इसलिए इस शक्तिपीठ की मान्यता और भी अधिक मानी जाती है।
इस मंदिर स्थल के विषय में तमाम जानकारों का मत है कि कई पौराणिक ग्रंथों में इस मंदिर को शक्तिपीठ के रूप में माना गया है। इसलिए यहां यह कहा जा सकता है कि यह मंदिर यहां द्वापर युग यानी महाभारतकाल से पहले भी विद्यमान था। जबकि कुछ लोग इसे महाभारतकाल में स्थापित मंदिर बताते हैं।
जबकि इसे एक सिद्धपीठ के रूप में मानने वालों का मत है कि हजारों वर्ष पहले जब देवी-देवताओं और राक्षसों एवं दैत्यों के मध्य हुए उस भीषण युद्ध के बाद ही माता पार्वती का यह छिन्नमस्तिका स्वरूप सामने आया था। संभवतः इसी कारण यह शक्तिपीठ नहीं बल्कि एक सिद्धपीठ है।
इस पवित्र मंदिर को लेकर तर्क, आस्था, विश्वास, मान्यताएं एवं कथाएं चाहें जो हों, लेकिन, यहां ये बात सच है कि रजरप्पा में स्थित माता छिन्नमस्तिका का यह मंदिर मात्र एक सिद्ध या शक्तिपीठ ही नहीं बल्कि धर्म, अध्यात्म और आत्मशक्ति की त्रिवेणी के रूप में माना जाता है।
भैरवी और दामोदर नदी के संगम स्थल पर स्थित होने के कारण माता छिन्नमस्तिका का यह शक्तिपीठ धाम प्रकृति की गोद में बसा मात्र एक धार्मिक ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और तांत्रिक शक्तियों का भी प्रमुख केन्द्र है। भारत के सबसे प्राचीनतम मन्दिरों में से एक माना जाने वाला माता छिन्नमस्तिका का यह शक्तिपीठ धाम मंदिर झारखंड राज्य की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा नामक क्षेत्र में स्थित है।
पौराणिक मत के अनुसार माता छिन्नमस्तिका के प्रमुख उपासकों में महर्षि यमदाग्नि, शुक्राचार्य, परशुराम और गुरु गौरक्षनाथ जैसे नाम भी रहे हैं। इसलिए इस मंदिर को 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है और देवी सती के 51 शक्तिपीठों में दूसरा सबसे विशेष महत्व का शक्तिपीठ धाम माना जाता है।
यहां बहने वाली भैरवी नदी का जल भी वाराणसी और हरिद्वार में बहने वाली गंगा नदी के जल की तरह ही पवित्र है। इसमें स्नान करके भक्त मां छिन्नमस्तिका के दर्शन करने जाते हैं। देश-विदेश के कई साधक यहां नवरात्र और अमावस्या आदि के विशेष अवसरों पर तंत्र साधना करने आते हैं।