आंदोलन एक ऐसा शब्द है जिससे पूरा विश्व परिचित है। लंबे समय से पूरे विश्व में किसी न किसी समस्या एवं मांग को लेकर आंदोलन होते रहे हैं और आज भी पूरे विश्व में तमाम तरह के आंदोलन किसी न किसी रूप में चल रहे हैं। पूरे विश्व में राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं अन्य विषयों को लेकर आज भी आंदोलन किये जा रहे हैं। अब सवाल यह है कि आंदोलन क्या है, कैसा होना चाहिए, इसकी रूपरेखा क्या होनी चाहिए, किस प्रकार के लोगों द्वारा इसका संचालन होना चाहिए आदि तमाम तरह के प्रश्न समाज में देखने एवं सुनने को मिलते रहते हैं।
वर्तमान समय में आंदोलन के बारे में आसानी से कह दिया जाता है कि यह कुछ लोगों द्वारा निहित स्वार्थों के लिए चलाया जा रहा है। कुछ के बारे में कह दिया जाता है कि अमुक आंदोलन के पीछे विदेशी शक्तियों का हाथ है किन्तु एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि यदि किसी आंदोलन के पीछे छिपा हुआ एजेंडा होगा तो निश्चित रूप से सामने आ जायेगा।
हाल-फिलहाल के विश्व स्तरीय कुछ आंदोलनों की बात की जाये तो आंदोलनों की मनोदशा आसानी से लोगों के समझ में आ जायेगी। अभी कुछ दिनों पहले अमेरिका में एक आंदोलन तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों द्वारा किया गया, जिसके बारे में कहा गया कि यह आंदोलन डोनाल्ड टंªप के उकसावे में हुआ। हालांकि, तमाम लोग इसे आंदोलन के बजाय उपद्रव मानते हैं। भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में सैनिक शासन के विरुद्ध लोकतंत्र की बहाली के लिए भी आंदोलन चल रहा है।
इस आंदोलन की भी ताशीर लोगों की समझ में आ रही है। भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी तमाम मुद्दों को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के खिलाफ भी आजकल आंदोलन चल रहे हैं, जिसे कुचलने के लिए तमाम तरह के उपाय किये जा रहे हैं। चीन में तो आंदोलनों को ऐसे कुचल दिया जाता है जैसे वहां के हुक्मरानों को आंदोलन जैसे शब्द से ही बहुत नफरत है। तिब्बत और हांगकांग इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
वर्तमान में यूरोपीय देशों की बात की जाये तो वहां आंदोलनों को लेकर एक अलग तरह की प्रवृत्ति देखने में मिल रही है। दरअसल, वहां शरणार्थियों की कट्टरपंथी एवं चरमपंथी गतिविधियों से परेशान वहां के निवासी इन शरणार्थियों एवं घुसपैठियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। इस मामले में फ्रांस ने उदारवाद एवं धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा फेंककर चरमपंथियों के खिलाफ सख्त कानून बनाकर इसकी शुरुआत कर दी है। फ्रांस की पहल के बाद अन्य यूरोपीय देशों में भी चरमपंथियों के खिलाफ आंदोलन तेज हो रहा है।
भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में लिट्टे उग्रवादियों के खिलाफ एक लम्बा संघर्ष चला। इस संघर्ष में श्रीलंका सरकार को जबदस्त सफलता मिली।
भारत की बात की जाये तो इस समय यहां सरकार द्वारा बनाये गये कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए किसान आंदोलन चल रहे हैं। तमाम लोग अब यह कहने लगे हैं कि इस आंदोलन की जड़ में कुछ और है। जो लोग आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, वे कुछ लोगों के नापाक मंसूबों के जाल में फंस चुके हैं। ऐसी स्थिति में आंदोलन के संचालक यदि इसकी पवित्रता को साबित नहीं कर पाये तो आंदोलन की पवित्रता पर हमेशा के लिए प्रश्नवाचक चिन्ह लग जायेगा।
आंदोलनों के इतिहास पर यदि नजर डाली जाये तो समय-समय पर इसकी अलग-अलग प्रवृत्ति रही है। कमोबेश पूरे विश्व में आजादी को लेकर संघर्ष एवं आंदोलन हुए हैं। गौरतलब है कि दुनिया में बहुत से देश अतीत में गुलाम रह चुके हैं, उसमें विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका का भी नाम है। अमेरिका को भी आजादी के लिए संघर्ष करना पड़ा है। आजादी के लिए अमेरिका में जिस समय आंदोलन हुआ था उस समय उसकी प्रवृत्ति कुछ और थी।
ब्रिटेन के बारे में तो कभी यह कहा जाता था कि उसका साम्राज्य इतना बड़ा था कि उसके राज में कभी सूर्यास्त होता ही नहीं था यानी उसके द्वारा शासित किसी देश में सूर्यास्त होता था तो किसी देश में सूर्योदय। आज जिन देशों को ‘काॅमनवेल्थ संगठन’ से जोड़ा गया है, वे सभी किसी न किसी रूप में इंगलैंड के गुलाम रह चुके हैं। गुलामी के दौर में ‘काॅमनवेल्थ’ देशों में आजादी के लिए जो संघर्ष हुआ था, उसकी प्रवृत्ति कुछ और थी किन्तु आज वहां वर्तमान में जो आंदोलन हो रहे हैं उसकी प्रवृत्ति कुछ और है।
यह सब लिखने के पीछे मेरा आशय यह है कि आंदोलन मनोभावों की उत्पत्ति है। जब जैसी मानसिकता होती है उसी प्रकार आंदोलन का स्वरूप बन जाता है। यह भी अपने आप में अटल सत्य है कि देश, काल, परिस्थितियों, ग्रहों-नक्षत्रों, राशियों एवं अन्य वायुमंडलीय परिवर्तनों के कारण राष्ट्र, समाज, समूह, परिवार एवं व्यक्ति की मनोदशा या मानसिक स्थिति परिवर्तित होती रहती है।
उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो गुलामी के दौर में जब तमाम देशों ने आजादी के लिए आंदोलन किया था तो उसका उद्देश्य बहुत व्यापक था, उसमें कमोबेश अधिकांश जनता की भागीदारी थी किन्तु अब वहां जो आंदोलन हो रहे हैं उसकी व्यापकता का दायरा सिकुड़ कर छोटा हो गया है। पहले व्यापक हितों को लेकर आंदोलन होते थे, अब धर्म, संप्रदाय, जाति, क्षेत्र, कुल, खानदान, परिवार एवं गोत्र तक को लेकर आंदोलन एवं संघर्ष हो रहे हैं। अब तो अधिकांश आंदोलनों में निहित स्वार्थ अधिक देखने को मिल रहे हैं, किन्तु जिस आंदोलन या संघर्ष में निहित स्वार्थ हावी होंगे, उसकी सफलता की कोई गारंटी नहीं रह जाती है।
आंदोलनों की उत्पत्ति के बारे में यदि बात की जाये तो सबसे पहले किसी न किसी के दिमाग में इसकी उत्पत्ति होती है या यूं कहें कि रूपरेखा बनती है, धीरे-धीरे इसका विस्तार होता है और एक व्यक्ति से समूह में आती है और फिर विशाल जन-समुदाय का रूप ले लेती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आंदोलन मनोभावों की उत्पत्ति हैं। इसकी प्रवृत्ति समय-समय पर बदलती रहती है। आंदोलन की रूपरेखा कैसी होना चाहिए, इस बारे में कोई निश्चित फार्मूला सेट नहीं किया जा सकता है बल्कि यह देश, काल एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
आजकल अपनी बात आम जनता एवं शासक वर्ग तक पहुंचाने के लिए तमाम रास्तों का सहारा लिया जा रहा है। धरना-प्रदर्शन, जनसभा, नुक्कड़ सभा, कैंडिल मार्च, आमरण अनशन, फ्लैग मार्च, मौन जुलूस आदि के द्वारा अपनी बातों को समाज के सामने पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि आंदोलन को चलाने वालों की मानसिकता क्या है और वे किस रास्ते से आगे बढ़ना चाहते हैं। उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो भारत में आजादी के आंदोलन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आंदोलनों के लिए अहिंसक रास्ता अपनाया तो नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे तमाम क्रांतिकारियों ने हिंसा का भी रुख अख्तियार किया।
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि गांधी जी को लगता था कि अहिंसक तरीका ज्यादा कारगर साबित हो सकता है तो गरम दल के नेताओं को लगता था कि बिना ईंट से ईंट बजाये बात बनने वाली नहीं है। राष्ट्रीय एवं सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के पक्ष में आजादी के आंदोलन के दौर में भी तमाम लोग नहीं थे तो आज भी ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जिनका मानना है कि सरकारी संपत्ति को नुकसान न पहुंचाया जाये। चूंकि, यह मामला मानसिकता पर आधारित है इसलिए किसी भी आंदोलन की रूपरेखा आंदोलन को संचालित करने वाले व्यक्ति की मनोदशा पर निर्भर करती है।
चूंकि, इस समय भारत आजाद है इसलिए यहां जो भी आंदोलन हों, उसमें सरकारी संपत्ति को नुकसान न पहुंचाया जाये क्योंकि उसकी भरपाई आम जनता के खून-पसीने की कमाई से ही की जायेगी। दुनिया में ऐसे तमाम आंदोलन हुए हैं जिनसे मानव इतिहास को सीखने-समझने का मौका मिला है।
आंदोलनों के संदर्भ में यदि भारत की बात की जाये तो यहां आजादी के समय एवं उसके बाद के आंदोलनों की प्रवृत्ति में जमीन-आसमान का अंतर है। आजादी के समय जो आंदोलन हुए उसकी प्रवृत्ति अलग थी, उसमें शत-प्रतिशत लोगों की मानसिक तौर पर एवं अधिकांश लोगों की प्रत्यक्ष तौर पर किसी न किसी रूप में भागीदारी थी किन्तु अब जो आंदोलन हो रहे हैं उनमें बहुत से काम अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भी हो रहे हैं तो स्थानीय स्तर पर भी छोटे-बड़े आंदोलनों की भरमार हो गई है। कमोबेश हर आंदोलन की रूपरेखा एक जैसी भले ही दिखे किन्तु उसकी ताशीर यानी प्रवृत्ति अलग-अलग देखने को मिलती है।
उदाहरण के लिए महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, बिजली, पानी, सड़क एवं अन्य समस्याओं के लिए जो आंदोलन एवं संघर्ष होते हैं उसकी प्रवृत्ति अलग होती है किन्तु आतंकियों के हाथों शहीद हुए सैनिकों का बदला लेने के लिए जब जन-समुदाय उमड़ता है तो उसकी प्रवृत्ति अलग होती है। चूंकि, आंदोलन मनोभावों की उत्पत्ति है तो हर आंदोलन की अलग-अलग ताशीर होना स्वाभाविक है। प्रत्येक आंदोलन की प्रवृत्ति को जान एवं समझ कर यदि उसका निदान किया जाये तो रास्ता आसानी से निकल जायेगा।
वास्तव में यदि देखा जाये तो आंदोलन जन-समुदाय की चेतना के प्रतीक होते हैं। इससे लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। सिर्फ आवश्यकता इस बात की है कि शासक वर्ग एवं जन-प्रतिनिधि आंदोलनों की गंभीरता को समझकर उसके निदान का प्रयास करें। आजादी के दौरान हुए आंदोलनों की बात की जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समय-समय पर इन आंदोलनों की प्रवृत्ति बदलती रही है।
सन 1857 की क्रांति, उस समय के किसान आंदोलन, दक्षिण का विद्रोह, मोपला विद्रोह, कूका विद्रोह, ताना भगत आंदोलन, तेभागा आंदोलन, तेलंगाना आंदोलन, चैरी-चैरा काण्ड, चंपारण सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, जलियांवाला बाग कांड, बारदोली सत्याग्रह, पूर्ण स्वराज की मांग, नमक सत्याग्रह, आजाद हिन्द फौज का संघर्ष, भारत छोड़ो आंदोलन सहित तमाम विद्रोहों, संघर्षों एवं आंदोलनों की बात की जाये तो यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि ये सब समय-समय पर किसी न किसी के दिमाग की मानसिक उत्पत्ति हैं और इनकी प्रवृत्ति समयानुसार बदलती रही है।
इस प्रकार भारत में आजादी के बाद के आंदोलनों पर नजर डाली जाये तो चिपको आंदोलन, जेपी आंदोलन, जंगल बचाओ आंदोलन, भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन, आरक्षण के पक्ष एवं विपक्ष में आंदोलन, राम मंदिर आंदोलन, सांप्रदायिकता एवं चरमपंथ के खिलाफ संघर्ष, जाट आरक्षण आंदोलन सहित तमाम आंदोलनों की प्रवृत्ति अलग-अलग रही है। जब समस्या अलग-अलग है तो अलग-अलग नजरिये एवं तौर-तरीकों से इसका समाधान भी हो सकता है। चूंकि, लोकतंत्र में चाहे वह शासक वर्ग हो या आंदोलनकारी, अड़ियल रुख किसी के लिए अच्छा नहीं होता इसलिए सभी को थोड़ा नरम रुख अपनाकर हर समस्या के समाधान के लिए आगे बढ़ना चाहिए।
वर्तमान समय में भारत में चल रहे किसान आंदोलन के समाधान के लिए मानवीय, तर्कसंगत एवं उदार रवैया सभी पक्षों को अपनाने की आवश्यकता है जिससे इसका हल निकाला जा सके। जब हर आंदोलन की प्रवृत्ति अलग होती है तो उसी के अनुरूप निराकरण के लिए सभी को आगे बढ़कर काम करना होगा। इसके अलावा और कोई अन्य विकल्प नहीं है।
- सिम्मी जैन ( दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस। )