किसी भी देश का सर्व दृष्टि से उत्थान इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश के निवासियों का चरित्र कैसा है? चरित्र से मेरा आशय इस बात से है कि लोग अपने राष्ट्र के प्रति भावनात्मक रूप से कितना लगाव रखते हैं? राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का किस स्तर तक एहसास एवं निर्वहन करते हैं? संविधान के तहत मिले अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह किस हद तक करते हैं? किसी भी देश का कोई भी नागरिक किसी भी परिस्थिति में अपने देश के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित एवं निष्ठावान हो, इसके लिए किसी भी व्यक्ति को मानसिक रूप से यदि पूरी तरह तैयार कर दिया जाये तो उसके बारे में कहा जाने लगता है कि अमुक व्यक्ति का चरित्र पूरी तरह राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत है।
सवाल यह उठता है कि इस बात का क्या पैमाना है कि किसी व्यक्ति का चरित्र राष्ट्रीय एवं राष्ट्र भक्ति से ओत-प्रोत है। इस दृष्टि से यदि बात की जाये तो अपने देश में तमाम ऐसे लोग हैं जो ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ नहीं बोलना चाहते हैं। ऊपर से कहते हैं कि हमारी राष्ट्रभक्ति को संदेह की नजर से न देखा जाये। ताज्जुब तो तब होता है जब भारत के टुकड़े-टुकड़े करने वालों का समर्थन करने वाले लोग भी अपने आप को कट्टर देशभक्त बताते हैं।
अपने देश में कुछ ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो बार-बार यह कहते हैं कि आखिर राष्ट्रीय चरित्र निर्माण का मापदंड क्या है? इस विषय में कुछ लोग कहते हैं कि यदि आप अपने देश की सीमाओं और उसके संविधान से प्रेम करते हैं तो देशभक्त हैं। यदि आप अपनी पहचान, अपनी सांस्कृतिक धरोहर, अपने इतिहास और अतीत से प्रेम करते हैं तो आप राष्ट्रवादी हैं। अब सवाल यह भी उठता है कि देशभक्त और राष्ट्रवादी में श्रेष्ठ कौन है? इस दृष्टि से देखा जाये तो कहा जा सकता है कि देशभक्त सुधारक होता है जो अपने देश और उसकी फिलासफी (दर्शन) के साथ तो है किन्तु उनमें सुधार के लिए भी तत्पर रहता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि जब देशभक्ति अंधभक्ति या चरम पर पहुंचती है तो राष्ट्रवाद का प्रारंभ होता है। राष्ट्रवादी अपने देश की हर अच्छाई-बुराई के साथ खड़ा होता है। सुधरने या सुधारने की कोई गुंजाइश नहीं होती। तर्क से भावना बड़ी होती है। राष्ट्रवादी की नजर में उसका देश ही सर्व मामले में श्रेष्ठ होता है।
किसी भी देश के लिए श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण ही राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की दिशा तय करता है यानी मोटे तौर पर यदि कहा जाये कि किसी भी व्यक्ति में कौन-कौन से ऐसे गुण होने चाहिए जिससे यह कहा जा सके कि अमुक में राष्ट्रीय चरित्र के पूरे गुण मौजूद हैं। जहां तक राष्ट्रीय चरित्र की बात की जाये तो निश्चित रूप से यह बहुत ही व्यापक विषय है किन्तु मोटे तौर पर यदि किसी व्यक्ति में राष्ट्र भावना, राष्ट्र भक्ति, ईमानदारी, परिश्रम, अनुशासन, लोभ-लालच से दूरी, गरीब एवं असहाय के प्रति सहानुभूति एवं मदद की भावना, संविधान के प्रति आस्था, संविधान के तहत नियमों-कानूनों का पालन, किसी भी रूप में शोषण की प्रवृत्ति न होना, राष्ट्रीय संपत्ति की सुरक्षा की भावना, सामाजिक समरसता का भाव, देश के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति समग्र दृष्टि से समानता का भाव आदि गुणों का समावेश है तो यह कहा जा सकता है कि अमुक व्यक्ति देश का श्रेष्ठ नागरिक है। यह बात अपने आप में पूरी तरह सत्य है कि श्रेष्ठ व्यक्तियों से श्रेष्ठ परिवार, श्रेष्ठ परिवार से श्रेष्ठ समाज और श्रेष्ठ समाज से ही श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण होता है।
हमारे देश में एक प्राचीन कहावत है कि ‘जैसा देश, वैसा भेष’, ‘जैसा राजा, वैसी प्रजा’ यानी जिस देश को जैसा नेतृत्व मिलेगा, वैसा देश बनेगा। उदाहरण के तौर पर यदि किसी मोहल्ले में दस फौजी रहते हों तो वहां चोर-उचक्के जाने से डरते हैं क्योंकि चोर-उचक्कों के मन में सदा यह भय बना रहता है कि फौजी के पास यदि कोई हथियार नहीं होगा तो वह बेल्ट से ही पीट-पीट कर ठीक कर देगा। कहने का आशय इस बात से है कि फौजी के मन में इस बात का भाव नहीं होगा कि जब उसके खिलाफ कुछ होगा, तभी वह कुछ करेगा। उसके मन में यह भाव होगा कि उसके मोहल्ले में किसी के प्रति कोई समस्या आती है तो वह मेरी ही समस्या है। इसी प्रकार के भाव को ही तो राष्ट्रीय चरित्र कहा जाता है।
आज देश में देखने में आ रहा है कि छोटी-छोटी बातों पर जब लोग धरना-प्रदर्शन करने निकलते हैं तो राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। बसें जला देते हैं, ट्रेनों में आग लगा देते हैं। किसी की निजी संपत्ति को भी क्षति पहुंचाने से बाज नहीं आते हैं। तमाम लोग ऐसे हैं जो किसी बच्चे, बच्ची, महिला, बुजुर्ग या असहाय को मुसीबत में फंसा पाते हैं तो उसका फायदा उठाने से बाज नहीं आते हैं। आये दिन बच्चों के अपहरण, कई अस्पतालों में चोरी से लोगों की किडनी एवं अन्य अंग निकालने, बलात्कार, चोरी एवं लूटपाट की घटनाएं देखने-सुनने को मिलती रहती हैं, जो भी लोग ऐसे कामों को अंजाम देते हैं तो ऐसे लोगों के बारे में क्या कहा जायेगा? इसका सीधा सा आशय है कि ऐसे लोगों में राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण नहीं हो पाया है। ताज्जुब तो तब होता है कि जब कुछ लोग क्रिकेट के मैदान में पाकिस्तान के जीतने पर जश्न मनाते हैं और भारत के जीतने पर मातम मनाते हैं, क्या ऐसे लोगों पर राष्ट्र भरोसा कर सकता है? मुझे यह बात लिखने में कोई संकोच नहीं है कि ऐसे लोग देश के लिए सर्वदृष्टि से घातक हैं।
देश का प्रत्येक व्यक्ति यदि सोच ले कि मेरे अकेले ईमानदार होने से क्या होगा, मेरे अनुशासन में रहने से क्या होगा तो राष्ट्रीय भावना कमजोर होती जायेगी। मैं की जगह हम का भाव लोगों में जगाकर राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण समय की नितांत आवश्यकता है। हिंदुस्तान में एक बहुत पुरानी कहावत है कि ‘बूंद-बूंद से सागर भरता है’ यानी छोटे-छोटे प्रयासों एवं कार्यों से बड़े-बड़े लक्ष्य प्राप्त किये जाते हैं इसलिए किसी भी बड़े कार्य को करने में गिलहरी प्रयास की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
भारत जब विश्व गुरु के आसन पर विराजमान था या जब भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, उस समय देश में प्रत्येक व्यक्ति के अंदर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना विद्यमान थी। भगवान महावीर के उपदेश – ‘अहिंसा परमो धर्मः’ एवं ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत पर लोग पूर्णतः अमल करते थे। कोई भी व्यक्ति अपने को लाचार एवं असहाय नहीं समझता था। गुरुकुलों में गुरुजन बच्चों को राष्ट्र एवं समाज का जिम्मेदार नागरिक बनाने हेतु शिक्षा देते थे। उस समय लोगों के मन में यह भावना नहीं थी कि भगत सिंह पैदा तो हों लेकिन मेरे घर नहीं बल्कि पड़ोसी के घर। आजादी के दौरान यदि क्रांतिकारियों ने निजी स्वार्थ के बारे में सोचा होता तो संभवतः देश अभी तक आजाद नहीं होता।
प्राचीन भारतीय सभ्यता-संस्कृति में ऋषि-मुनियों, विद्वानों एवं गुरुओं का जीवन पूर्ण रूप से समाज एवं लोक कल्याण के लिए समर्पित था। ऋषि दधीचि ने लोक कल्याण के लिए अपनी हड्डियां दान में दे दी, त्रेता युग में लोक कल्याण के लिए ऋषियों-मुनियों ने अपने तप-बल से जो कुछ अर्जित किया था, उसे लोक कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को ऋषियों-मुनियों ने अपने तप से प्राप्त कर किये अनेक हथियार समर्पित कर दिये। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि उस समय अधिकांश लोगों के मन में भाव यही था कि मेरे पास जो कुछ भी है वह राष्ट्र, समाज एवं लोक कल्याण के लिए है।
प्रकृति को यदि हम उदाहरण के रूप में लें तो हवा, पानी, अग्नि, सूर्य की रोशनी, चांद की शीतलता आदि जो कुछ भी है, वह सभी लोगों के लिए या यूं कहें कि लोक कल्याण के लिए है। महाभारत काल में पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य एवं दानवीर कर्ण जैसे महारथी इसलिए मारे गये कि किसी न किसी रूप में किसी मोड़ पर वे लोग सत्य के मार्ग से डिग गये थे यानी सत्य के मार्ग से हटना उनके लिए भारी पड़ गया था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ये लोग महान योद्धा होते हुए भी संकोचवश सत्य और धर्म का साथ नहीं दे पाये। संकोच छोड़ कर यदि सत्य के साथ खड़े होते तो संभवतः महाभारत नहीं होता।
आचार्य विनोबा भावे ने लोक कल्याण के लिए भूदान अभियान चलाया। जमीदारों एवं अधिक भूमि वालों से भूमि दान में मांग कर भूमिहीनों को दान में दी, महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने लोगों से सहायता मांग कर विश्व प्रसिद्ध हिंदू विश्व विद्यालय की स्थापना कर डाली। कहने का आशय यही है कि जिन लोगों का जीवन लोक कल्याण के लिए समर्पित रहा, वे सदा-सदा के लिए इतिहास में अमर हो गये।
राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की दृष्टि से देखा जाये तो जब सरकार ने ‘अग्निपथ योजना’ की घोषणा की तो देश के अधिकांश लोगों को लगा कि इससे राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की दिशा में काफी मदद मिलेगी। राष्ट्रीय चरित्र वास्तव में उस समय देखने को मिलता है जब देश में युद्ध के हालात हों और किसी प्राकृतिक आपदा का देश सामना कर रहा हो।
वैसे भी कहा जाता है कि युद्ध एवं किसी प्राकृतिक आपदा के समय राष्ट्रवाद उफान या यूं कहें कि उन्माद पर होता है। शिक्षा विशारदों की बात की जाये तो उन्होंने सदैव अच्छी आदतों को ही चरित्र बताया है। सत्य, साहस, धैर्य, उदारता, प्रेम, विनम्रता, उत्साह, सौजन्यता, अभयता आदि गुण लोगों में जितने अधिक होंगे, उतना ही राष्ट्र एवं समाज के लिए कल्याणकारी एवं मंगलकारी होगा। प्रभु श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, धर्मात्मा राजाओं, ऋषियों-मुनियों, विद्वानों एवं सज्जनों को उनके गुणों के कारण ही उन्हें राष्ट्र एवं समाज के लिए प्रेरणा स्रोत माना जाता है। कोरोना की भीषण आपदा के समय असहाय एवं लाचार लोगों को जिन लोगों ने लूटने का कार्य किया उन लोगों में सर्वदृष्टि से राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की आवश्यकता है। आनलाइन फ्राड के माध्यम से जो लोग आम जनता की गाढ़ी कमाई पर डाका डाल रहे हैं, उनमें राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की पूर्ण रूप से जरूरत है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि वर्तमान समय में यदि अपने देश को सबसे अधिक किसी चीज की आवश्यकता है तो वह है राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की। इसके लिए सरकार और समाज दोनों को मिलकर कार्य करना होगा। जहां तक संभव हो इस कार्य की शुरुआत स्वयं से करनी चाहिए क्योंकि समाज में लोग उसी की बात मानते हैं जिसका आचरण या यूं कहें कि जीवन प्रेरणादायी होता है। इस रास्ते पर जितना शीघ्र बढ़कर कार्य किया जाये, उतना ही अच्छा होगा क्योंकि देर-सवेर ऐसा समय जरूर आयेगा जब पूरे देश को राष्ट्रीय चरित्र निर्माण हेतु आगे आना ही होगा इसलिए बिना विलंब किये इस दिशा में बढ़ जाना ही सर्वथा उचित होगा। द
– सिम्मी जैन