अजय सिंह चौहान || माता आदिशक्ति के उपासकों के लिए वैसे तो देश के करीब हर राज्य और हर जिले में एक न एक सिद्धपीठ मंदिर स्थल मौजूद है। लेकिन फिर भी अगर कोई भक्त अपने राज्य या अपने शहर से दूर किसी अन्य सिद्ध और प्रसिद्ध शक्तिस्थल पर जाकर माता आदिशक्ति की उपासना के साथ दर्शन भी करना चाहे तो उनके लिए माता के उन तमाम शक्तिस्थलों में से एक है गुजरात की एक पावागढ़ नाम ऊंची पहाड़ी पर मौजूद माता आदिशक्ति के नौ रूपों में से एक ‘महाकाली शक्तिपीठ मंदिर’।
गुजरात राज्य के पंचमहाल जिले की पावागढ़ तहसील में स्थित माता महाकाली के इस प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिर का उल्लेख कई धार्मिक गं्रथों और इतिहास की पुस्तकों में मिलता है। यह मंदिर गुजरात की प्राचीन राजधानी चांपानेर के पास ही में स्थित है।
गुजरात के पावागढ़ में स्थित माता काली के प्राचीन मंदिर स्थल के बारे में मान्यता है कि यहां पर भगवान विष्णु के चक्र से कट कर माता सती का वक्षस्थल गिरा था इसलिए इसे पवित्र शक्तिपीठों में स्थान प्राप्त है। इसके अलावा एक अन्य किंवदंती कहती है कि यहां पर माता सती के दाहिने पैर का अंगूठा गिरा था इसीलिए इसे ‘पावागढ़ शक्तिपीठ मंदिर’ नाम दिया गया। हालांकि, कुछ लोग इसे महाकाली का सिद्ध मंदिर ही मानते हैं।
इस मंदिर की एक अन्य खास बात यह भी है कि यहां दक्षिण मुखी काली माता की मूर्ति है, इसलिए दक्षिणी रीति-रिवाज से अर्थात तांत्रिक तरीकों से माता की पूजा की जाती है। पुराणों में इस मंदिर को कई स्थानों पर ‘शत्रुंजय मंदिर’ के नाम से भी पहचाना जाता है। ‘शत्रुंजय मंदिर’ यानी एक ऐसा मंदिर जिसमें पूजा-अर्चना के बाद यहां का राजा किसी भी युद्ध में अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता था।
यह शक्ति स्थल देवीपुराण में वर्णित 52 शक्तिपीठों में से एक है और इसमें विराजित माता काली को ‘महाकाली’ के नाम से पुकारा जाता जाता है। ‘महाकाली’ का ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए शक्तिपीठों में से एक है। इसके अलावा इस मंदिर के विषय में यह भी माना जाता है कि महर्षि विश्वामित्र ने यहां माता काली की तपस्या करने से पहले स्वयं अपने हाथों से माता काली की मूर्ति की स्थापना की थी।
कई प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख है कि महर्षि विश्वामित्र ने यहां माता काली के चरणों में बैठकर कई वर्षों तक तपस्या की थी, उस घोर तपस्या से प्रसन्न होकर देवी महाकाली ने उन्हें आशीर्वाद दिया और इस धाम को जीवंतता प्रदान की। इसीलिए पावागढ़ के इस मंदिर के निकट बहने वाली नदी का नामकरण भी महर्षि विश्वामित्र के नाम पर ‘विश्वमित्री’ हो गया।
पावागढ़ का महाकाली मंदिर- दर्शन भी, पर्यटन भी | Mahakali Mandir Pavagadh
कहा जाता है कि अपने वन गमन के दौरान भगवान श्रीराम यहां भी माता के दर्शन करने आये थे। इसके बाद भगवान राम के बेटे लव और कुश ने भी यहां माता के दर्शन किये थे।
अब अगर हम इसके ‘पावागढ़’ नाम के विषय में बात करें तो माता काली का यह मंदिर यहां के पहाड़ी समूह में से एक सबसे ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और पहाड़ी की यह ऊंचाई लगभग 550 मीटर यानी करीब 1,800 फिट है। पहाड़ की इसी ऊंची चोटी के कारण यहां के संपूर्ण क्षेत्र को ‘पावागढ़’ के नाम से पहचाना जाता है।
‘पावागढ़’ यानी एक ऐसा स्थान जो तेज हवाओं के झौंकों या पवन का गढ़ हो या जहां पवन का वास हमेशा एक जैसा हो उसे पावागढ़ या ‘पवन का गढ़’ कहा जाता है। दरअसल, यह पहाड़ी चारों तरफ से गहरी और खतरनाक खाइयों से घिरी हुई होने के कारण इसकी इतनी ऊंचाई पर हवा का वेग या झोंके भी इस पर चढ़ाई करने वालों के लिए चारों तरफ से खतरा पैदा करते हैं। संभवतः इसलिए इसे ‘पवन का गढ़’ या ‘पावागढ़’ कहा गया और इसी के नाम से यह क्षेत्र भी प्रसिद्ध हो गया।
माना जाता है कि पावागढ़ नामक यह पहाड़ी समूह लगभग आठ करोड़ वर्ष से भी अधिक पुराना है और इसका विस्तार भी करीब 40 वर्ग किलोमीटर के घेरे में फैला हुआ है।
जबकि इसके ‘पावागढ़’ नाम के विषय में एक अन्य किंवदंती कहती है कि यहां पर माता सती के पैर का अंगूठा गिरा था। इसीलिए इसे ‘पावागढ़’ नाम दिया गया और इस मंदिर को भी ‘पावागढ़ शक्तिपीठ मंदिर’ के नाम से पहचान मिली है।
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विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख है कि पावागढ़ की इस महाकाली माता का यह धाम ऋषि-मुनियों, देवताओं और साधकों के लिए सबसे शांत और एकांत तपोस्थली के रूप में प्रसिद्ध रहा है। इसलिए यहां कहा जाता है कि अब तक ‘महाकाली’ माता के दर्शन कितने ही ऋषि- मुनियों और देवता कर चुके हैं।
हिंदू मंदिर के अलावा पावागढ़ की इस पहाड़ी पर दिगंबर जैन समुदाय के ऐतिहासिक मंदिर भी हैं। जबकि यहां बौद्ध भिक्षुओं ने भी कई वर्षों तक यहां अपना डेरा डाला था।
पहाड़ी की इतनी ऊंचाई पर बने इस दुर्गम मंदिर की चढ़ाई चढ़ना हर श्रद्धालु के बस की नहीं है। हालांकि, अब यहां सरकार की ओर से रोप-वे की व्यवस्था कर दी गई है।
पावागढ़ की ‘महाकाली’ माता का यह धाम इतना पावन, पवित्र और दिव्य है कि इस धाम के आसपास कभी कोई दानव प्रवृत्ति आने का साहस नहीं करती। आज भी कोई भक्त जब सच्ची श्रद्धा और भक्ति से इस मंदिर में प्रवेश करता है तो उसे यहां की अद्भुत और दिव्य शक्तियों का आभास होता है।
पावागढ़ की ‘महाकाली’ माता के इस शक्तिपीठ मंदिर के आसपास का वातावरण जहां गर्मियों के दिनों में असहनीय हो जाता है वहीं मानसून और सर्दियों के मौसम में मंदिर के चारों तरफ के वातावरण में दूर-दूर तक फैली खेतों की हरियाली, हरे-भरे वृक्ष, मखमली पर्वत श्रृंखलायें, विश्वमित्री नदी के जल से भरा दूधिया तालाब, पंछियों के मधुर स्वर और ठंडी हवा के झौंके इस स्थान पर आने वाले श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं।
इस मंदिर में बारहों मास श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है लेकिन, चैत्र और शरद नवरात्र के अवसरों पर यहां भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है। प्रतिवर्ष चैत्र नवरात्र के अवसर पर यहां पर एक बड़ा विशाल मेला आयोजित किया जाता है जिसमें वडोदरा, हलोल, गोधरा तथा दाहोद सहीत राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र से भी भारी संख्या में श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं।
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पावागढ़ की इन्हीं पहाड़ियों की तलहटी में बसी है चंपानेर नगरी, जिसे महाराज वनराज चावड़ा ने अपने चंपा नाम एक मंत्री के नाम पर बसाया था। पावागढ़ पहाड़ी की चोटी से पहले यानी करीब 1,470 फीट की ऊंचाई पर ‘माची हवेली’ नामक एक ऐतिहासिक संरचना भी है।
‘महाकाली’ माता के इस मंदिर और इस क्षेत्र से जुड़े आधुनिक इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि चंपानेर की नींव 8वीं शताब्दी के दौरान चावड़ा वंश के राजा वनराज चावड़ा के शासनकाल में पड़ी थी। उस समय यहाँ हिन्दू और जैन मन्दिरों के अलावा कई प्रकार के यात्री निवास, मंदिर, कुंए और चार दिवारियों का निर्माण करवाया गया था। वर्ष 1300 ईसवी में चैहान राजपूतों ने इस चंपानेर पर कब्जा कर लिया और उन्होंने यहां करीब 200 वर्षों तक अपनी सत्ता कायम रखी। लेकिन, कहा जाता है कि बाद में उनको एक श्राप के कारण यह स्थान छोड़ कर जाना पड़ा था।
सन 1484 के आते-आते अहमदाबाद के सुल्तान महमूद बेगड़ा ने इस क्षेत्र पर अपना कब्जा जमा लिया और चंपानेर का नाम बदल कर मुहम्मदाबाद रख दिया। इसके बाद चावड़ा वंश और चैहान राजपूतों के द्वारा यहां किये गये विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों में महमूद बेगड़ा ने अपने नाम और मजहब के अनुरूप कई प्रकार के बदलाव करवा लिये। कुछ हिंदू धर्मस्थलों को मस्जिदों में बदलवा दिया और कुछ की निर्माण शैली को मुगल शैली का रूप दे दिया।
सन 1535 के आते-आते हुमायूँ ने यहां से सुल्तान महमूद बेगड़ा को भगा दिया और चंपानेर पर कब्जा कर लिया। इसके बाद तो चंपानेर के मुल निवासियों की सुख-शान्ति ही भंग हो गई। उसका परिणाम ये हुआ कि धीरे-धीरे यह पावागढ़ क्षेत्र वीरान होता चला गया, और आज यहां जो लोग भी रह रहे हैं वे भी खानाबदोश जिंदगी जी रहे हैं, कोई भी स्थायी होकर रहना नहीं चाहता।