अजय सिंह चौहान | मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के अंतर्गत पड़ने वाला सेंधवा तहसील प्रसिद्ध है अपने मशहूर किले के कारण जो कहलाता है ‘सेंधवा का किला’ (Sendhwa Fort)। सेंधवा का यह किला शहर के लगभग बीचों-बीच में स्थित है। राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 52 पर स्थित यह नगर महाराष्ट्र राज्य की सीमा के नजदीक और मध्य प्रदेश के दक्षिण-पश्चिम निमाड़ क्षेत्र में आता है।
माना यह जाता है कि प्राचीन समय में यही सेंधवा उत्तम नस्ल के घोड़ों की खरीदी और बिक्री का प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र हुआ करता था इसलिए अच्छी से अच्छी नस्ल के घोड़े खरीदने-बेचने के लिए दूर-दूर के राज्यों से राजा-महाराजा यहां आते थे। और क्योंकि घोड़े को सैंधव नाम से भी जाना जाता है और इसलिए इस स्थान पर घोड़े की बड़ी मंडी होने की वजह से ही संभवतः इस नगर का नाम सेंधवा पड़ा होगा।
अनेकों प्रकार की ऐतिहासिक घटनाओं और तथ्यों को अपने गर्भ में छुपाये बैठे सेंधवा के इस किले (Sendhwa Fort) के बारे में माना जाता है कि यहां से कई बार किसी न किसी प्रकार के निर्माण कार्य के लिए की गई खुदाईयों के दौरान कीमती रत्न और सोने की ईंटे तथा सोने और चांदी की ढेरों गिन्नियां भी लोगों को मिल चुकीं हैं। किले की दीवारों के पास खुदाई के समय भी बड़ी मात्रा में सोने और चांदी की गिन्नियां प्राप्त हुईं थीं। खुदाई में प्राप्त इन सभी कीमती वस्तुओं को सरकारी खजाने में जमा करवा दिया गया था।
स्थानीय लोग इस किले को एक रहस्यमयी किला मानते हैं। आजादी के समय तक भी इस किले में कई प्रकार के ऐतिहासिक अवशेष मौजूद थे, लेकिन बाद में यहां से कई प्रकार की कीमती और ऐतिहासिक महत्व की वस्तुएं गायब होती गईं। इसके अलावा किले (Sendhwa Fort) के अंदर एक ऐसी सुरंग भी हुआ करती थी जो यहां से 17 किलोमीटर दूर बिजासन घाट पर बने भवरगढ़ किले में निकलती है।
सेंधवा का यह किला वैसे तो पुरातत्व विभाग के अंतर्गत आता है। लेकिन, विभाग के पास इससे संबंधित कोई खास प्रामाणिक और स्पष्ट इतिहास उपलब्ध नहीं है। लेकिन जो आंकड़े उपलब्ध हैं उनके अनुसार, किले का क्षेत्रफल लगभग 37 एकड़ में फैला हुआ है।
इसके अलावा इतिहास के कुछ जानकारों का मानना है कि स्थानीय काले पत्थरों से निर्मित यह किला 14वीं शताब्दी के परमार काल में बनवाया गया था और 17वीं शताब्दी में इसमें बड़े पैमाने पर जिर्णोद्धार किया गया था। जबकि कुछ लोग इसे 17वीं शताब्दी में निर्मित किला भी मानते हैं।
कुछ स्थानीय जानकार यह भी मानते हैं कि मराठा शैली में निर्मित इस किले को खास तौर पर एक छावनी के रूप में प्रयोग में लाया जाता था। क्योंकि उस दौर में यह किला उत्तर और दक्षिण की सीमाओं की रक्षा के लिए खास महत्वपूर्ण स्थान माना जाता था।
किले के अंदर तालाब के पास राज राजेश्वर नामक एक प्राचीन शिव मंदिर भी बना हुआ है जिसके बारे में बताया जाता है कि मराठा शैली में बना यह मंदिर भी उसी दौर का है।
स्थानिय लोग बताते हैं कि किले (Sendhwa Fort) के अंदर किये जाने वाले एक निर्माण कार्य की खुदाई के दौरान उस स्थान पर कुछ कमरों एवं बड़े-बड़े भवनों की नींव होने के अवशेष मिले थे। लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया और उन्हीं अवशेषों के ऊपर नया निर्माण करवा दिया गया।
इसे पुरातात्विक विभाग की लापरवाही कहें या अनदेखी, क्योंकि जहां एक ओर स्थानीय लोगों के अनुसार इस ऐतिहासिक किले में कई बार कीमती रत्न, सोने की ईंटे और सोने तथा चांदी की ढेरों गिन्नियां लोगों को मिल चुकीं हैं वहीं पुरातात्विक विभाग के पास खास तौर पर इस संरचना से संबंधित कुछ छोटी-मोटी जानकारियों के अलावा कोई विशेष प्रामाणिक या ऐतिहासिक जानकारियां और आंकड़े उपलब्ध ही नहीं है।
जबकि कुछ अन्य इतिहासकार मानते हैं कि यह किला 17वीं शताब्दी में बनवाया गया था। माना जाता है कि उन दिनों सेना की कुछ टुकड़ियां किले में सदैव तैनात रहतीं थीं। किले में जहां-तहां पड़ी तोपों और किले की दिवारों पर मौजूद तोपों को देखकर भी इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि इस किले को विशेष शस्त्रागार के तौर पर प्रयोग में लाया जाता रहा होगा।
किले किले की चारों दिशाओं में बने इसके चारों द्वार आकार में भव्य, सुंदर, आकर्षक और नक्काशीदार हैं। जबकि वर्तमान में इनमें से तीन द्वार ही प्रयोग में लाये जाते हैं। किले की चार दीवारी की चैड़ाई 10 से 12 फीट तक की है। और इन दीवारों पर नक्काशीदार कंगूरे बने हुए हैं। जबकि किले की चार दीवारी सहित पिछले हिस्से की अधिकतर दीवारों के कंगूरे भी अब क्षतिग्रस्त हो चुके हैं।
अपने समय में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रह चुकी इसकी विशालकाय चार दिवारी के ज्यादातर हिस्सों पर घास के अलावा कई प्रकार के पेड़-पौधे उग चुके हैं और कुछ जगहों पर तो अच्छी खासी झाड़ियां भी देखी जा सकती हैं, जिनके कारण किले की दिवारें लगातार कमजोर होती जा रही हैं। उचित प्रकार से रखरखाव ना हो पाने के कारण यह किला अब एक खण्डहर का रूप लेता जा रहा है और डरावना सा लगने लगा है।
हैरानी होती है कि जितनी लापरवाही हमारे इतिहासकारों ने इस महत्वपूर्ण इमारत की जानकारियों को लेकर दिखाई है उससे भी कहीं ज्यादा लापरवाही आज पुरातत्व विभाग इसके रख रखाव में दिखा रहा है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि सेंधवा (Sendhwa Fort) के इस ऐतिहासिक महत्व के किले की तोपें आज भी किले में इधर-उधर बिखरी हुई अपनी दयनीय हालत बयान कर रही हैं। इनमें से कुछ तोपें तो किले की दीवारों पर ऐसी अवस्था में हैं जैसे कि आजादी के बाद से रखरखाव के नाम पर उन्हें किसी ने हाथ भी नहीं लगाया होगा।
ऐतिहासिक धरोहर के रूप में अति महत्वपूर्ण और बेशकीमती होने के बाद भी इन तोपों की कोई कीमत नहीं समझी जा रही है। जहां-तहां पड़ीं ये तोपें बता रहीं हैं महानगरीय ऐतिहासिक महत्व की इमारतों से कोसों दूर स्थित दूर-दराज के क्षेत्रों की भारतीय पुरातात्विक धरोहरों की कीमत हमारा देश कितना समझ पाया है। प्राचीन और ऐतिहासिक महत्व का यह किला आज जर्जर अवस्था में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।
इसके अलावा यहां जो अवशेष देखने को मिलते हैं उनमें से सबसे महत्वपूर्ण है कि किले के चारों ओर जलस्रोत रूप में तालाब बने हुए थे। लेकिन अब किले के आस-पास घनी आबादी की बसावट होने के कारण उन तालाबों के अस्तित्व और तमाम प्रकार के अवशेष भी खत्म हो चुके हैं।
इसके अलावा किले के अंदर जो उस समय के दो तालाब बने हुए थे वे अब भी मौजूद तो हैं, लेकिन उनकी स्थिति भी बिना मरम्मत और बिना स्वच्छता के दयनीय हो चुकी है। ऐतिहासिक महत्व के इन तालाबों की आज भी खासियत है कि भीषण गर्मियों में भी इन तालाबों में पानी हमेशा बना रहता है।