अजय सिंह चौहान || सनातन धर्म के लिए अति महत्वपूर्ण और माता सती के 18 महा शक्तिपीठों (Sharda Peeth in POK) में से एक शारदापीठ या शारदा विश्वविद्यालय किसी समय दक्षिण एशिया में सबसे प्रसिद्ध और शिक्षा का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था। उस समय के कई विद्धानों और इतिहासकारों ने हिंदू वैदिक पद्धतियों और शिक्षा के लिए प्रमुख केंद्र रहे कश्मीर और वहां के श्री शारदा देवी के मंदिर की तुलना कोणार्क सूर्य मंदिर और सोमनाथ मंदिर के साथ की थी। इस शक्तिपीठ को लेकर मान्यता है कि देवी सति का दायां हाथ यहां गिर गया है।
जिन इतिहासकारों और साहित्यकारों या विद्वानों ने शारदा पीठ मंदिर की दिव्यता और भव्यता को स्वयं देखा था उन्होंने अपनी रचनाओं में इसका जिक्र जरूर किया। इतिहासकारों ने उस इमारत को प्राचीन वास्तुकला का एक बहुत अच्छा उदाहरण बताया। कुछ विद्वानों के अनुसार संपूर्ण कश्मीर को ही शारदा पीठ (Sharda Peeth in POK) के रूप में जाना जाता था। आदि शंकराचार्य ने यहां एक विश्वविद्यालय की भी स्थापना की थी जिसमें दुनियाभर के छात्रों को यहां शिक्षा दी जाती थी।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि एक चीनी बौद्ध भिक्षु, जिसका नाम जुआनजांग था, उसने 632 इसवी में इस शिक्षण केंद्र का दौरा किया था और वह वहां दो साल तक रहा। इस दौरान उसने इस स्थान से जुड़ी अनेकों गतिविधियों को देखा और वहां के पुजारियों, शिक्षकों और विद्यार्थियों की सराहना में बहुत कुछ लिखा।
वर्ष 1148 इसवी में महाकवी कल्हण द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘‘राजतरंगिणी’’ में श्री शारदा देवी मंदिर और इसके भौगोलिक स्थान का विस्तारपूर्वक उल्लेख है। कल्हण ने लिखा है कि ललितादित्य के शासनकाल के दौरान, जो 8वीं शताब्दी में था, गौड़ बंगाल के एक राजा के कुछ अनुयायियों ने भी कश्मीर का दौरा किया था और शारदा देवी मंदिर (Sharda Peeth in POK) में पूजा की थी।
सन 1030 में, मुस्लिम इतिहासकार अल-बेरुनी जो एक फारसी विद्धान था ने भी कश्मीर का दौरा किया। अल-बेरुनी के अनुसार, मंदिर में श्री शारदा देवी (Sharda Peeth in POK) ) की जो मूर्ति थी वह लकड़ी की थी। अल-बेरुनी ने शारदा मंदिर की भव्यता और महत्व की तुलना मुल्तान के उस दौर के सूर्य मंदिर, सोमनाथ मंदिर और विष्णु चक्रवर्मन मंदिर से की थी। अल-बरुनी के अनुसार शारदा तीर्थ धार्मिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण स्थल था।
कश्मीर में बने लगभग सभी मंदिरों की निर्माण शैली और विशेषकर शारदा मंदिर (Sharda Peeth) के विषय में कहा जाता है कि कश्मीर की अपनी खुद की निर्माण शैली और वास्तुकला है। और संभवतः यह शैली राजा ललितादित्य के शासनकाल के दौरान विकसित हुई थी और 9 वीं सदी के आते-आते राजा अवंतिवरमन के शासनकाल के समय तक यह निर्माण शैली अपनी चरम पर थी।
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कश्मीरी निर्माण शैली में जो भी प्रसिद्ध और प्राचीन मंदिर आज शेष हैं उनमें से मार्तंड में सूर्य मंदिर और श्रीनगर में शंकराचार्य मंदिर प्रसिद्ध हैं। इस शैली में आम तौर पर, एक मंदिर दो हिस्सों में बना होता है, जिसके अनुसार एक हिस्से में प्रमुख चैकोर भवन और उसके सामने एक बड़ा आंगन होता है। मंदिर के एक हिस्से में शिक्षकों और छात्रों के लिए विशेष स्थान दिया जाता है। प्राचीन शारदा मंदिर (Sharda Peeth) में भी कश्मीरी स्थापत्य शैली की सभी महत्वपूर्ण विशेषताएं विकसित थीं।
शारदा मंदिर (Sharda Peeth in POK) का यह स्थान समुद्र तल से 11,000 फीट की ऊंचाई पर है और श्रीनगर से करीब 115 किलोमीटर दूरी पर है। शारदा मंदिर के पास ही अमरचुंड नामक एक झील भी है, जिसके विषय में कहा जाता है कि ऋषि शांडिल्य यहां ध्यान-साधना करने आया करते थे।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार आज हम जिस शारदा मंदिर (Sharda Peeth in POK) के अवशेषों को देखते हैं उसका निर्माण 12 वीं शताब्दी के मध्य में, जैशिमहा के शासनकाल में किशनगंगा घाटी के एक आर्य सारस्वत ब्राह्मण सरदार द्वारा करवाया गया था। शेष बचे अवशेषों के आधार पर बताया जाता है कि मंदिर की लंबाई 142 फीट और चैड़ाई 94.6 फीट रही होगी। मंदिर की बाहरी दीवारें 6 फुट चैड़ी और 11 फुट लंबी थीं और 8 फीट ऊंचाई वाली मेहराब थीं।
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शारदा पीठ (Sharda Peeth) विश्वविद्यालय की प्रमुख देन शारदा स्क्रिप्ट है जो कश्मीरी भाषा की मूल स्क्रिप्ट है। कुछ जानकारों का मानना है कि गुरूमुखी और पंजाबी लिपि भी शारदा लिपि पर ही आधारित है। दसवीं शताब्दी के आसपास कश्मीरी भाषा को लिखने के लिए शारदा लिपि का प्रयोग किया गया था। पौराणिक कश्मीरी शास्त्र शारदा लिपि में ही लिखे गए हैं। शारदा लिपि का जन्म संभवतः मूल ब्राह्मी से विकसित हुआ। विद्वानों, शासकों तथा हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध आदि सभी धर्म के लोगों ने लिखने के लिए शारदा लिपि का खूब इस्तेमाल किया। इसी के चलते ललदेद, रूपा भवानी, नन्द ऋषि तथा अन्य भक्ति कविताएं शारदा लिपि में ही लिखी गई थीं जो आज भी पुस्तकालयों में मौजूद हैं। हालांकि, अब शारदा लिपि का प्रयोग केवल कश्मीर के हिन्दू पंडितों तक ही सीमित रह गया है।
किसी समय में कश्मीर का यह शारदा पीठ (Sharda Peeth in POK) मंदिर हिंदू वैदिक पद्धतियों और शिक्षा के लिए प्रमुख केंद्र हुआ करता था। पूर्ण रूप से इस्लाम में परिवर्तित होने से पहले तक कश्मीर का यह क्षेत्र शारदा मंदिर के कारण ‘शारदा देश’ कहा जाता था और वहां के निवासियों को ‘शारदापूरवासी’ या शारदा शहर के निवासी भी कहा जाता था।
कश्मीरी हिंदू शारदा देवी के प्रति पूर्णरूप से समर्पित थे। अपनी दैनिक पूजा-पाठ के रूप में, कश्मीरी हिंदुओं ने ‘नमस्ते शारदे देवी काश्मीरपुर-वासिनि, त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे’ जैसे वाक्यांश को पूर्ण रूप से मन में धारण किया हुआ था। जिसका अर्थ है – नमस्ते, हे शारदा देवी, कश्मीरपुर वासिनी। मैं प्रतिदिन आपकी प्रार्थना करता हूं, कृपया मुझे ज्ञान का दान दें।
माना जाता है कि कई प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों की रचना इसी शारदा देश में की गई थी। ऋषि शांडिल्य के समय से, कश्मीर संस्कृत भाषा, साहित्य, खगोल विज्ञान, ज्योतिष और न्यायशास्त्र के लिए प्रसिद्ध था और कला और वास्तुकला का एक प्रसिद्ध केंद्र भी था। राजा ललितादित्य के समय यानी 8वीं शताब्दी में कश्मीर को हिंदू धर्म के अध्ययन के लिए प्रमुख केंद्र के रूप में जाना जाता था। भारतीय उप महाद्वीप में शारदा पीठ (Sharda Peeth) एक जाना पहचाना स्थान रखता था। यहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए कंबोडिया, म्यानमार, तिब्बत, आफगानिस्तान, इंडोनेशिया, भूटान, नेपाल ईरान, थाइलैंड और प्राचीन हरिवर्ष यानी आज के चीन तक से भी विद्यार्थी आते थे।