अजय चौहान | गणतंत्र दिवस पर किसानों के द्वारा दिल्ली में हुई हिंसा के बाद जैसे ही शाम को आंदोलन कमजोर पड़ते दिखा तो न सिर्फ दिल्ली में बैठे उनके आका बल्कि देश और दुनिया के करीब-करीब हर हिस्से में बैठे उनके निवेशकों के चेहरे मुरझाने लग गये थे। लेकिन, अचान जब राकेश टिकैत के आंसू बहने लगे तो न सिर्फ इस आंदोलन में एक नई जान आ गई बल्कि उनके आकाओं के चेहरों पर भी फिर से वही मुस्कान लौट आई।
राकेश टिकैत के बहते हुए आंसूओं का असली कारण तो सभी जानते हैं लेकिन, अधिकतर वे किसान जिनका इस आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है वे ये बात अब तक भी ठीक से नहीं जान पाये हैं कि आखिर टिकैत जैसे व्यक्ति के आंसू भला कैसे टपक सकते हैं। टिकैत को नजदीक से जानने वाले भी ये बात अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके राजनीतिक कैरियर और राष्ट्र तथा किसान प्रेम में कितना फर्क है।
भले ही आज टिकैत के उन आसूंओं के कारण वहां फिर से बहार आ चुकी है लेकिन, देश और दूनिया के उन लोगों को ये बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि 26 जनवरी की उस घटना के बाद राकेश टिकैत को जहां आंसू बहाना चाहिए था और जहां पश्चाताप करना चाहिए था वहां से उन्होंने इतनी दूरी बना ली है कि अब चाहते हुए भी मिट नहीं सकती।
टिकैत को या फिर उनके समर्थकों को ये बात अच्छी तरह मालूम है कि जितनी संख्या में मोदी या केन्द्र सरकार के समर्थक हैं या उनके वोटर हैं उनके आगे देश की न तो कोई दूसरी पार्टी है और ना ही किसी आंदोलन में शामिल लोगों की संख्या, लेकिन फिर भी टिकैत के समर्थक ये बात भूलते जा रहे हैं और अपनी मनमानी करते जा रहे हैं।
किसान आंदोलन में लगे आकाओं और उनके समर्थकों का ये बात भी जान लेनी चाहिए कि अगर पीएम मोदी या केन्द्र सरकार के समर्थक भी कृषि कानूनों के पक्ष में एक साथ सड़कों पर उतर जायेंगे तो फिर इस दबाव के कारण केन्द्र सरकार को न चाहते हुए भी बल प्रयोग करना ही पड़ेगा और इस कृषि कानूनों का विरोध करने वालों को किसी भी स्थिति में या किसी भी प्रकार से दबाना या कूचलना ही पड़ेगा।
26 जनवरी के बाद से टिकैत के मंच पर जो भी हो रहा है या जो भी कोई बयानबाजी कर रहा है वो ये बात भूलता जा रहा है कि वे किसकी बुराई कर रहे हैं और किसके पक्ष में बोल रहे हैं। किसान आंदोलन के इस मंच पर अब न तो किसान बचे हैं और ना ही उनकी वो मांगे ही शेष बचीं हैं जिनको लेकर वे आंदोलन कर रहे हैं। और अगर अब इस किसान आंदोलन में कुछ शेष बचा है तो वो है देश और मोदी विरोधियों के एजेंडे जो सीधे-सीधे सामने आते रहे हैं।
किसानों के इस आंदोलन में देश और मोदी विरोधियों के एजेंडे इस कदर हावी होते जा रहे हैं कि उन्हें ये भी नहीं मालूम कि वे भी इसी देश से, इसी समाज से और इसी धर्म और समुदाय से संबंध रखते हैं। आंदोलनकारियों को अब सिर्फ और सिर्फ यही एक मात्र एजेंडा दिख रहा है कि किसी भी तरह से कृषि कानूनों को समाप्त करवाया जाय।
इस किसान आंदोलन में एक सबसे महत्वपूर्ण बात जो उजागर हो चुकी है वो ये है कि किसी भी प्रकार से देश में अराजकता का माहौल पैदा हो जाये और फिर चाहे इसमें केन्द्र सरकार बदनाम हो या संपूर्ण देश ही क्यों न बदनाम हो जाय, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। आंदोलनकारियों के आका यहां ये भी भूल चुके हैं कि अच्छा क्या है और बूरा क्या है? किसे बहुमत मिला है और किसको विपक्ष में बैठने का अवसर?
दरअसल, जिन किसानों को इस आंदोलन में थोड़ा-सा भी गलत दिखने लगा था या गलत लगा उन्होंने इस आंदोलन से दूरी बना ली और जो इनके झांसे में आकर आंदोलन के हिंसक रूप में बदलने तक साथ थे उन्होंने इसके तुरंत बाद ही अपने फैसले बदल लिए और देशहीत में इस आंदोलन से दूरी बना कर अपने आप को बचा लिया। लेकिन, अब बात आती है कि आखिर इस आंदोलन में ऐसा क्या खास है कि कुछ ऐसे विदेशी चेहरे जो न तो किसानी ही जानते हैं और ना ही भारत के बारे में कुछ भी जानते हैं वे इसमें क्यों कूद रहे हैं?
तो यहां सीधा सा उत्तर है यही है कि किसी भी तरह से भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम किया जाय और आराजकता का माहौल बनाया जाय ताकि जो निवेशक चीन से मुंह मोड़ कर अब भारत में आना चाहते हैं वे इस बात से डरें कि यहां उनके व्यवसाय को फलने-फूलने का वो अवसर नहीं मिलने वाला है जो वे चाहते हैं।
किसान आंदोलन के दम पर भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने और कमजोर करने के लिए विदेशी ताकातों ने यहां अब तक जो भी चेहरे तैयार किये थे वे अपना काम ठीक से नहीं कर पा रहे थे। यही कारण है कि वे ताकतें एक बार फिर से नये चेहरों की तलाश में जुट गईं और इसी क्रम में उन्हें इस आंदोलन के बहाने कुछ अन्य चेहरे भी मिल गये हैं।