अजय सिंह चौहान | आज अगर हमारे पास सम्राट विक्रमादित्य से जुड़े बहुत अधिक सबूत नहीं हैं तो इसका मतलब ये तो नहीं हो सकता कि विक्रमादित्य का कोई अस्तित्व ही नहीं था। क्योंकि, आज भी उनके जुड़े कई ऐसे उदाहरण और साक्ष्य मौजूद हैं जिनको सारी दुनिया मान रही है।
दरअसल, सम्राट विक्रमादित्य से जुड़े इतिहास का दुर्भाग्य ये रहा कि पहले तो मुगलों ने और उनके बाद अंग्रेजों ने हमारे लिए इस मुश्किल को इतना बढ़ा दिया कि, हम चाहते हुए भी अपने उस समृद्धशाली इतिहास को जस का तस प्राप्त नहीं कर सकते। आज हम सम्राट विक्रमादित्य के इतिहास से जूड़ी कुछ ऐसी जानकारियों के बारे में बात करेंगे जो संक्षिप्त तो हैं लेकिन आंखे खोल देने वाली भी हैं।
दरअसल, हमारे देश के इतिहास का ये दुर्भाग्य रहा है कि सड़यंत्रों और साजिशों के तहत न सिर्फ सम्राट विक्रमादित्य का बल्कि उनके जैसे और भी कई महान लोगों के सच को इतिहास के पन्नों से हटा दिया गया। जबकि महाराजा विक्रमादित्य का वर्णन तो भविष्य पुराण और स्कंद पुराण तक में भी मिलता है।
विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस समय उनका शासन अरब के देशों तक में फैला हुआ था। तभी तो प्राचीन अरब के साहित्य में भी विक्रमादित्य के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। लेकिन हमारे देश के इतिहासकार और साहित्यकार प्राचीन अरब के उस साहित्य का उल्लेख ही नहीं करना चाहते।
अब अगर हम इसके कारणों के पीछे की कहानी को जाने तो पता चलता है कि महाराजा विक्रमादित्य के दरबार में नवरत्न हुआ करते थे इसलिए नौ रत्नों की परंपरा विक्रमादित्य से ही शुरू होती है, ना कि अकबर के दरबार से। लेकिन, इतिहासकारों ने तो अकबर के लिए विक्रमादित्य के उस इतिहास को ही बदल दिया और उसकी जगह अकबर को देने की कोशिश की है।
गीता प्रेस, गोरखपुर से जारी भविष्यपुराण के अनुसार सम्राट नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन अपने समय के महान और चक्रवर्ती सम्राट थे। और सम्राट गंधर्वसेन के दो पुत्र थे, जिनमें से उनके बड़े पुत्र का नाम भर्तृहरी सेन और दूसरे का नाम विक्रम सेन था जो बाद में विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका जन्म ईसा से भी 101 वर्ष पहले हुआ था। तभी तो विक्रम संवत के अनुसार विक्रमादित्य आज से यानी कि 2021 में 2078 वर्ष पहले शासन करते थे।
विक्रमादित्य के बारे में प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार उन्हें 5 साल की उम्र में ही तपस्या के लिए जंगल में भेज दिया गया था। जहां उन्होंने 12 साल तक तपस्या की। तपस्या से लौटने के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई और राजा भर्तहरी से राजकाज के बारे में कई जानकारियां प्राप्त कीं।
विक्रम सेन जब 20 वर्ष के हुए तब अचानक उनके बड़े भाई राजा भर्तृहरि, राजपाट छोड़कर योगी बन गये और राजपाट का भार विक्रम सेन को यानी कि विक्रमादित्य को सौंप दिया।
राजा विक्रमादित्य, भारतीय इतिहास में ही नहीं बल्कि विश्व इतिहास के सबसे ज्ञानी और सबसे महान राजा माने जाते थे। अपने शासनकाल में उन्होंने समय की गणना के लिए विक्रम संवत आरंभ किया था, जिसे आज भी काल की गणना के लिए प्रयोग किया जाता है।
विक्रमादित्य, देवी हरसिद्धि के परम भक्त थे और उज्जैन में आज भी देवी हरसिद्धि का वो मंदिर मौजूद है। विक्रमादित्य को कई अलौकिक और देवीय शक्तियाँ प्राप्त थीं, तभी तो उनसे जुड़ी ‘विक्रम बेताल‘ की कहानियों को पढ़ने से उनकी शक्तियों के विषय में पता चलता है। ‘विक्रम बेताल‘ की उन कहानियों के अनुसार, विशाल सिद्धवट वृक्ष के नीचे बेताल साधना द्वारा विक्रमादित्य ने अलौकिक प्राकृतिक शक्तियाँ प्राप्त कर ली थी।
बेताल कथाओं के माध्यम से ही हमको ये भी जानने को मिलता है कि विक्रमादित्य ने अपने साहसिक प्रयासों से अदृश्य ‘अग्निबेताल‘ को वश में कर लिया था। तभी तो वह अग्निवेताल‘ अदृश्य रूप से उनके अद्भुत कार्यों को संपन्न करने में सहायता करता था।
सम्राट विक्रमादित्य ने उसी ‘अग्निबेताल‘ की सहायता से कई असुरों, राक्षसों और दुराचारियों को नष्ट किया। और तो और आज जिन्हें हम ‘अलाउद्दीन का चिराग’ वाली कहानियों के नाम से पढ़ते आ रहे हैं, दरअसल वो भी सम्राट विक्रमादित्य की उस ‘अग्निबेताल‘ वाली घटनाओं की नकल करके ही पेश की जा रहीं हैं। सम्राट विक्रमादित्य ने ‘अग्निबेताल‘ को अपनी तपस्या के दम पर वश में किया था। जबकि अलाउद्दीन की मनगढ़ंत कहानी में बताया गया है कि उसे ये जिन्न मुफ्त में पाया था।
सम्राट विक्रमादित्य से संबंधित ‘ज्योतिर्विदाभरणम्’ नामक एक ऐसा ग्रंथ आज भी मौजूद जो 34 ईसा पूर्व में लिखा गया था। यानी कि ईसा महीस से भी 34 साल पहले लिखा जा चुका था। इससे इस गं्रथ से बात की पुष्टि होती है कि, विक्रमादित्य ने विक्रम संवत चलाया था। ‘ज्योतिर्विदाभरणम्’ के लेखक कालिदास ने इसमें अपना खुद का भी परिचय दिया है और सम्राट विक्रमादत्य का भी विस्तार से वर्णन किया है।
ज्योतिर्विदाभरणम्’ नामक ये ग्रंथ आज भी मौजूद है। लेकिन, हमारे ही देश के भ्रष्ट इतिहासकार इसे भी नहीं मानते। तभी तो ‘ज्योतिर्विदाभरणम्’ ग्रन्थ का नाम सुनते ही कई इतिहासकार लाल-पीले हो जाते हैं।
इसके अलावा, नेपाली राजवंशावली के अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय यानी कि ईसापूर्व पहली शताब्दी में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का भी उल्लेख मिलता है। यानी, देश में ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी अनेकों ऐसे विद्वान हुए हैं, जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के समय का मानते हैं।
अब अगर हम विक्रमादित्य के नाम का अर्थ निकालें तो स्पष्ट है कि विक्रम का अर्थ वीर और आदित्य का अर्थ सूर्य से है। यानी विक्रमादित्य का सीधा सा अर्थ है ‘वीरता का सूर्य’। इसीलिए उनको विक्रमादित्य कहा गया।
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और अगर बात विक्रमादित्य की हो रही हो तो भला उनके उस सिहांसन को कैसे भूला जा सकता है, जिसको हम अक्सर ‘सिहांसन बत्तीसी’ के नाम से सुनते आ रहे हैं। क्योंकि पुराणों में उल्लेख मिलता है कि उनका वो सिंहासन अतुलनीय शक्तियों वाला एक दिव्य सिंहासन था। और विक्रमादित्य को स्वयं देवराज इंद्र ने बत्तीस पुतलियों वाला और सोने, हीरे और मणियों से सजा वो सिंघासन भेंट किया था।
उस सिहांसन के बारे में कहा जाता है कि विक्रमादित्य के पश्चात यह सिंहासन स्वयं ही लुप्त हो गया था। लेकिन, आगे चलकर उन्हीं के वंश के राजा भोज ने तपस्या के बल पर इस सिहांसन को फिर से प्राप्त कर तो लिया, लेकिन वे उसपर तभी बैठ पाये जब उसमें विराजमान देवीय शक्तियों ने या यूं कहें कि उस सिहांसन में विराजमान उन बत्तीस पुतलियों ने राजा भोज की योग्यता को परखा।
सम्राट विक्रमादित्य के जीवन से जुड़े पुराणों में उल्लेख है कि उज्जैन में हरसिद्ध माता मंदिर के ठीक सामने आज जो एक खाली तालाब मौजूद है वहीं उस दौर का रुद्रसागर हुआ करता था। और उस रुद्रसागर की गहराई में आज भी कुछ ऐसे रत्न हो सकते हैं जो राजा विक्रमादित्य के सिंहासन के अवशेष कहे जाते हैं। ऐसे में यहां सवाल ये भी उठता है कि क्या आज भी रुद्रसागर की उस गहराई में सम्राट विक्रमादित्य का वो देवीय शक्तियों वाला सिहांसन मौजूद है?
आज के दौर की सरकारों के शासनकाल में उसी रुद्रसागर की इतनी दुर्दशा हो रही है कि वहाँ आज से करीब तीन-चार वर्ष पहले कूड़े के ढेर हुआ करते थे, लेकिन उससे भी बड़ा दुर्भाग्य उस रुद्रसागर के साथ ये हुआ है कि ठीक उसी भूमि पर “महाकाल लोक” के नाम से एक तथाकथित दिव्या लोक का निर्माण किया गया है जो हिन्दू धर्म के लिए धन उगाही का माध्यम बन चुका है और उसका दुर्भाग्य देखिये की एक आम हिन्दू इस षड्यंत को समझ ही नहीं पा रहे हैं। आवश्यका तो इस बात की थी कि उस रुद्रसागर का फिर से निर्माण किया जाता और उसके किनारों को पक्का करने, उसकी स्वस्च्छता के बाद उसे फिर से सुरक्षित किया जाता और उस अतीत को फिर से जाग्रत किया जाता।
आज से लगभग 2070 वर्ष पहले भारतीय इतिहास में नया युग का प्रारंभ करने वाले चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य इस पृथ्वी पर न्याय व्यवस्था को लेकर सबसे महान राजा माने जाते थे। देवी और देवताओं की नजर में भी राजा विक्रमादित्य पृथ्वीलोक में सबसे महान और न्यायप्रिय राजा थे। इसलिए उनको सभी देवी-देवताओं ने दर्शन दिये थे।
विक्रमदित्य के शासन काल में हर नियम, धर्मशास्त्र के हिसाब से बने होते थे, न्याय प्रक्रिया और राज व्यवस्था सबकुछ धर्मशास्त्र के नियमों पर ही चलता था। इसीलिए विक्रमदित्य का शासनकाल भगवान राम के बाद, सबसे अच्छा माना गया है।
राजा विक्रमादित्य के बारे में माना जाता है कि उन्होंने अपनी भक्ति से, भगवान महाकालेश्वर और माता हरसिद्धि के साक्षात दर्शन किये थे।
रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत् जैसे कई प्रमुख और पवित्र ग्रन्थों के अलावा हमारी संस्कृति और इतिहास से जुड़े अन्य अनेकों ग्रंथों को उस दौर में आम जनमानस के द्वारा करीब-करीब भूला ही दिया गया था। लेकिन, महाराज विक्रमदित्य ने उनको फिर से जनमानस में स्थान दिलाया और उनकी पवित्रता को स्थापित करवा कर धर्म की रक्षा की। इसके लिए उन्होंने कई स्थानों पर भगवान विष्णु और भगवान शिव के मंदिरों का निर्माण करवा कर सनातन धर्म को बचाने का काम किया।
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इस बात के साफ-साफ प्रमाण हमें अयोध्या से भी मिलते हैं कि जब भगवान राम की जन्मभूमि की खुदाई के दौरान जो अवशेष पाये गये थे उनमें सम्राट विक्रमादित्य के द्वारा बनवाया गये भगवान राम के उस मंदिर के अवशेष भी हैं जिनका जिक्र अक्सर उनके साहित्य में मिलता है।
विक्रमदित्य के 9 रत्नों में से एक कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्‘ लिखा, जिसमें संपूर्ण भारत का हजारों वर्षों का इतिहास दर्ज है। यदि राजा विक्रमादित्य न होते तो संभवतः आज हम भारत के उस इतिहास को तो खो ही चुके होते, साथ ही साथ भगवान् कृष्ण और भगवान राम को भी भूल जाते और किसी और ही धर्म की माला जप रहे होते।
आज हम जिस हिन्दू कैलंडर को मानते हैं और हिन्दी सम्वत, वार, तीथियाँ, राशि, नक्षत्र, गोचर और ज्योतिष गणना से जुड़ी बातें करते हैं वे सभी विक्रमदित्य के नौ रत्नों में से एक वराह मीहिर के द्वारा दिये गये उसी कैलेंडर का ही तो हिस्सा है जो विक्रमदित्य के शासनकाल के दौरान तैयार करवाया गया था।
इतिहासकार तो यहां तक भी मानते हैं कि दिल्ली के महरौली में स्थित कुतुब मिनार का निर्माण भी तीथियों, राशियों, नक्षत्रों और ज्योतिष गणना के लिए विक्रमदित्य के नौ रत्नों में से एक वराह मीहिर के द्वारा ही करवाया गया था। आज भले ही इमारत को लोग कुतुब मिनार कहते हैं लेकिन, वास्तव में ये एक विष्णु स्तंभ है।